________________ आगम निबंधमाला आहार के गवैषणा दोष, अनेषणीय आहार (11) रसायन सेवन (12) चक्षुविभूषा (13) रसों में आसक्ति (14) उपघात-पर पीडाकारी प्रवृत्ति (15) अंगोपांग धोना (16) उबटन-लेप (17) गृहस्थों से अरस-परस(अतिव्यवहार) (18) ज्योतिष प्रश्न (19) शय्यातर पिंड (20) धूत क्रीडा-जुआ, सट्टे आदि के अंक बताना (21) हस्तकर्म (22) कलह-विवाद (23) जूता (24) छत्र (25) नालिका खेल (26) पंखा (27) परस्पर परिकर्म (28) हरी वनस्पति(हरियाली) पर मल-मूत्र विसर्जन (29) गृहस्थ के पात्र (30) गृहस्थ के वस्त्र (31) गृहस्थ के आसन, शय्या, खाट (32) घरों में बैठना (33) गृहस्थ को कुशल क्षेम पूछना या सावद्य पूछना (34) पूर्वजीवन स्मरण(सुख-भोग) (35) यश-कीर्ति-श्लाघा-कामनाएँ (36) गृहस्थ को आहारादि प्रदान / इन सब दोष स्थानों का भिक्षु त्याग करे, शुद्ध संयम नियम में रहे / यहाँ उत्तर गुण के साथ कोई मूलगुण संबंधी कथन भी क्वचित् है / भाषा विवेक- (1) किसी के बीच में न बोले (2) मर्मकारी वचन नहीं बोले (3) माया का त्याग कर विचार कर बोले (4) मिश्र भाषा न बोले (5) बोलने के बाद पश्चात्ताप करना पडे ऐसा न बोले (6) गोपनीय बात प्रकट न करे / (7) होलगोल, तू तूं ऐसे तुच्छ अमनोज्ञ शब्द न बोले / निबंध-४२ दानशाला प्याऊ दाणापीठ की चर्चा इन कार्यों की प्रेरणा श्रावक समाज में मानवता एवं जीवों को . सुख सुविधा देने की दृष्टि से होती रहती है / जैन मुनि की अपनी विशेष मर्यादा होती है, भाषा विवेक भी उसका विशिष्ट होता है / अत: वह प्रश्नगत विषयों की एकांतिक चर्चा में नहीं उलझे / मुनि श्रोताओं को जीवों का स्वरुप और उनके दुःख का स्वरुप बताकर अनुकंपा रस का सिंचन कर सकता है तथा पुण्य-पाप तत्त्व का समुच्चय स्वरुप समझा सकता है / परंतु प्रश्नगत स्थानों कार्यों की स्पष्ट अनुमोदना प्रेरणा नहीं कर सकता / साथ ही इनका निषेध भी नहीं कर सकता है। गृहस्थ अनुकंपा रस से और अपने कर्तव्य से स्वयं ये कार्य करते 86 - - -