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________________ आगम निबंधमाला एकात्मवाद सिद्धांत :- समस्त लोकव्यापी एक ही आत्मा है, अलग-अलग दिखने वाले जीव भ्रम मात्र है / पृथ्वी एक है फिर भी उसके जगह जगह भिन्न-भिन्न रूप दिखते है पहाडादि / वैसे ही ए क ही आत्मा अनेक रूपों में दिखती है / पृथ्वी से बनने वाले घडे आदि अनेक रूपों में भी पृथ्वी तो एक ही है / पानी से भरे अनेक घडों में अलग-अलग चंद्र दिखते हैं फिर भी चंद्र एक ही है। वैसे ही उपाधि भेद से एक ही आत्मा अनेक रूपों में दिखती है। वास्तव में यह युक्ति विहीन सिद्धांत है / पूरे विश्व में एक ही आत्मा मानने पर निम्न आपत्तियाँ आती है- (1) एक व्यक्ति पाप चोरी आदि करेगा. उसका फल सभी को भगतना पडेगा। (2) एक के कर्मबंधन में पड़ने पर सभी को कर्मबंधन में पडना पडेगा और एक के मुक्त हो जाने पर सभी की मुक्ति हो जायेगी / इस प्रकार बंध और मोक्ष की व्यवस्था भी नहीं रहेगी (3) एक जन्म मरण या कार्य प्रवृत्त होने पर सभी का जन्मना मरना आदि होगा जो कदापि संभव नहीं है। (4) जड चेतन सभी में एक आत्मा लोकव्यापी मानने पर आत्मा का ज्ञानगुण जड में भी मानना पडेगा (5) एक का ज्ञान दूसरे में भी मानना पडेगा जो असंभव है / (6) उपदेष्टा और उपदेशक तथा श्रोता और परिषद तथा वक्ता सभी एक ही है तो उपदेश और शास्त्र रचना आदि की कोई आवश्यकता ही नहीं रहेगी। गुरु-शिष्य, अध्ययनअध्यापन आदि भी व्यर्थ सिद्ध हो जायेंगे / शास्त्रकार कहते हैं कि प्रत्यक्ष में देखा जाता है कि जो पाप कर्म करता है वही उसका फल अकेले भोगता है, सभी को नहीं भोगना पडता है / इस प्रकार सारे विश्व के सजीव निर्जीव पदार्थों में एक आत्मा व्यापक मानना युक्तिसंगत नहीं है / व्यवहार संगत और बुद्धि गम्य भी नहीं है। किंतु मिथ्यात्व के तीव्र उदय से कितने लोग ऐसा सिद्धांत स्वीकार करते हैं / उत्तर मीमांसा (वेदांत) दर्शन का यह मत है / तज्जीव तत्शरीरवाद :- शरीर है वही जीव है, जीव है वही शरीर है। शरीर उत्पन्न होने पर आत्मा की अभिव्यक्ति होती है / शरीर विनष्ट होने पर आत्मा कहीं जाती हुई दिखती नहीं है इसलिये वह शरीर स अभिन्न है। .. | 77
SR No.004414
Book TitleAgam Nimbandhmala Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilokchand Jain
PublisherJainagam Navneet Prakashan Samiti
Publication Year2014
Total Pages256
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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