________________ आगम निबंधमाला प्रज्ञप्ति सूत्र के पाठ तो मांसभक्षण की प्ररूपणा प्रेरणा करने वाले हैं। इन पांठों को ज्यों का त्यों छपाने वाले संपादक जिनवाणी के महान अपराधी होते हैं / शासन सेवा की जगह कुसेवा करते हैं / दुर्बुद्धि से प्रक्षेप कर अनंत संसार बढाने वालों के सहायक और अनुमोदक होते हैं। सच्चे अर्थ में वे संपादक गणधरों को बदनाम करते हैं कि उनको भाषा विवेक या वचन प्रयोग विवेक भी नहीं था कि जिन मद्य-मांस शब्दों के प्रयोग से नरकायु बंधने का विषय कहा है, उसी मद्य-मांस शब्द से साधु की गोचरी और भगवान महावीर की औषध का विषय भी कह दिया और उन्हीं शब्दों से यात्रा करने की सफलता और कार्यों की सिद्धि होना कह दिया। माने न माने ऐसे पाठों को छपाने वाले स्पष्ट ही तीर्थंकर गणधर एवं जिनशासन की महान आशातना करने के भागी होते हैं / इसके अतिरिक्त जो संघ, साधु, आचार्य आदि यह सामुहिक निर्णय कर लेते हैं कि उपर्युक्त सूत्र के पाठ जिनवाणी नहीं है, गणधरों की रचना नहीं है, प्ररूपणा करने योग्य नहीं है ऐसी घोषणा करके भी ज्यों का त्यों मूल पाठ छपाकर रख देते हैं, ऐसे लोगों को कर्तव्य हीन और महान अकर्मण्य कहा जाय तो भी कम होगा। ऐसे लोग भविष्य में जैनागमों की घोर निंदा करवाने के पात्र होते हैं / जैन धर्म का एक सच्चा श्रावक भी अनार्य लोगों के मांसाहार को सहन नहीं कर सकता, मांसाहार की बात सुनना भी पसंद नहीं कर सकता; वहाँ सूत्र छपाने वाले आचार्य और विद्वान संत अपने ही शास्त्रो में मांस की प्ररूपणा और प्रेरणा करने वाले मूल पाठ को छपाकर अपने आपको भगवान के और जिनशासन के महान ईमानदार और वफादार होने का संतोष करते हैं, ऐसे पाठों को संशोधन करना भी अनंत संसार बढाना मानते हैं, यह समझ भ्रम ही है / जैसे कि अपने शरीर का कोई अंग विकृत हो गया हो और समझ में आ गया हो फिर भी उसे संभाले रखना, शुद्धि नहीं करना, समझदारी नहीं कही जा सकती। किंतु शरीर के प्रति उपेक्षा ही कही जायेगी। ठीक इसी तरह ये ऊपर चर्चित सूत्रांश जिनागम की प्ररूपणा से विपरीत पाठ हैं, गणधरों की रचना नहीं है, ऐसा स्वीकार कर लेने के बाद भी ज्यों / 66 / /