________________ आगम निबंधमाला परठे जाते / जो पदार्थ त्रस जीवों के पडने और मर जाने से अखाद्य जैसे ही हो गये हों तो वे विवेक पूर्वक परठ दिये जाते हैं / (4) अचित्त निर्दोष आहार ज्यादा मात्रा में होने से, एकांत में खली जगह में कुछ ऊँचाई वाली जगह में परठ दिये जाते हैं / (5) अचित्त सदोष खाद्यपदार्थ आवागमन के मार्ग से अति दूर, एकांत में, खुल्ले में परठ दिये जाते हैं। अचित्त खाद्य पदार्थों को परठने में भाष्यकारों ने अनेक विकल्पों से अनेक विधियाँ, संकेत आदि बताये हैं / जिसका हेतु है कि उसका उपयोग पशुपक्षी कर सके, कभी कोई मानव भी कर सके और कभी किसी परिस्थिति में साधु-साध्वी भी कर सके, इत्यादि विशेष अनुभव आवश्यक भाष्य से करने चाहिये / / ___परठने के समय लोगों की दृष्टि न पडे, आवामगन न हो, धर्म की या खुद साधु की हीलना निंदा न हो, इसका पूर्ण विवेक रखना चाहिये / ऐसा विवेक जो रख सके, उसे परठने के लिये भेजा जाता है, न कि छोटे या नव दीक्षित को / आहार परठने का कार्य अनुभवशील विवेकी साधु को ही करना चाहिये / सकारण आहार परठने का प्रायश्चित्त आगम में नहीं है, किंतु विराधना और दीर्घ दृष्टिकोण से समाचारी में जो प्रायश्चित्त विधान हो वह गुरु आज्ञा से निर्जरार्थ ग्रहण कर लेना चाहिये। सचित्त और दोष युक्त आहार का प्रायश्चित्त तो गवेषणा करने वाले को आता है। परठने वाले को व्यावहारिक और सामाचारिक प्रायश्चित्त यथालघुष्क (अल्पतम) आता है। सचित्त पानी या त्रस जीव युक्त पानी हो तो जलीय स्थानों के निकट जाकर उनके बाहर योग्य गीली जगह हो तो वहाँ परठा जाता है फिर वह पानी आदि आगे पानी में चले जाय / अथवा ऐसी जगह बाहर न हो, पूर्ण सूखा किनारा हो तो पानी में विवेक से परठा जाता है। परठने वाला अप्काय की विराधना आदि का एक उपवास प्रायश्चित्त ग्रहण करता है, यह विधि भी भाष्य-नियुक्ति(आवश्यक सूत्र) में बताई है। शास्त्र के मूल पाठों में आहार परठने के निर्देश अनेक जगह है किंतु आहार परठने की स्पष्ट विधि तो व्याख्याओं से ज्ञात होती है / सचित्त पानी परठने की विधि मूल पाठ में आचारांग सूत्र के दूसरे श्रुत / 63 /