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________________ आगम निबंधमाला वायु के जीवों को स्पर्श होता है, हम जो भी स्पंदन करते हैं या स्थिर बैठे हैं, तो भी हमारे स्पर्श में आने वाले वायु जीव मरते हैं / जिस तरह वर्षा के समय कोई पानी की बूंद आकर शरीर पर पड गई तो अपने स्पर्श से उसमें रहे असंख्य जीव स्वत: मरते रहते हैं / वैसे ही वायु काय के जीव हमारे संबंध से सदा सर्वत्र मरते ही रहते हैं / (2) कोई फंक से या पंखे से अथवा किसी भी पदार्थ को तीव्र वेग से हिलाता है, गति कराता है, फेंकता है, उससे हवा की, वायु की उदीरणा होती है, वायु की निष्पत्ति होती है। उसमें वायुकाय के जीव उत्पन्न होते हैं / जैसे दीपक जलाने से वहाँ अग्रि के जीवों का जन्म प्रारंभ होता है, वैसे ही हवा उत्पन्न होने से वहाँ विशेष वायुकाय के जीवों का उत्पन्न होना अर्थात् जन्म मरण होना प्रारंभ होता है / अत: हवा पैदा करने से जीवों के जन्म मरण प्रारंभ होने के निमित्त की दूसरे प्रकार की विराधना समझनी चाहिये / ___ योगों का प्रवर्तन कम करने से प्रथम प्रकार की विराधना न्यून न्यूनतम होती जाती है और फूंकना या पंखा चलाना आदि हवा करने का कार्य नहीं करने से द्वितीय प्रकार की वायुकाय की विराधना बिलकुल नहीं होती है। - संयम ग्रहण करने वाले मुनि दूसरे प्रकार की विराधना के पूर्ण त्यागी होते हैं और उस विराधना से बचने के लिये वे हर कार्य को यतना से विवेक से करते हैं / प्रथम प्रकार की विराधना से बचने के लिए वे अपनी प्रवृत्तियों को घटाते रहते हैं, निवृत्ति की तरफ बढने का लक्ष्य रखते हैं / आवश्यक और आगम आज्ञा वाली प्रवृत्तिओं तक ही सीमित रहते हैं / आगे बढकर निवृत्त साधनामय जीवन में अधिकतम ध्यान और कायोत्सर्ग में समय पसार करते हैं / प्रथम प्रकार की विराधना शरीर के अंदर के सूक्ष्मतम संचार से भी चालू रहती है, जो केवलज्ञानी वीतरागी के तेरहवें गुणस्थान के अंतिम समय तक चलती है / ... आगम में श्रमणों के लिये वायुकाय की अहिंसा के सभी वर्णनों में दूसरे प्रकार की 'फूंकना और वीजना' रूप हिंसाकारी प्रवृत्ति का सर्वथा / 57
SR No.004414
Book TitleAgam Nimbandhmala Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilokchand Jain
PublisherJainagam Navneet Prakashan Samiti
Publication Year2014
Total Pages256
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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