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________________ आगम निबंधमाला दो एकांगी परंपराएँ चल रही हैं। किंतु आगम दोनों का समन्वयात्मक कथन करते हैं / अचेल सचेल दोनों धर्मो का निष्पक्षता से, अनाग्रह से, आगम शास्त्रों मे मण्डन ही है / खंडन नहीं है / फिर भी परम्पराएँ एकांत मान्यता की चल जाती है, चला दी जाती है, और चलती ही रहती है। समन्वय करके समझने की बुद्धि कुंठित हो जाती है / दोनों ही एक दूसरे का खण्डन करते रहते हैं / शास्त्रों के गहरे, गहन-गंभीर आशय को समझने के लक्ष्य से सोचना, समझना या समन्वय करना आग्रह में पड जाने के बाद कठिन हो जाता है और उसके लिए कल्पित अमोघ शस्त्र हाथ में ले लिया जाता है कि 9 पूर्व के ज्ञान बिना अचेलत्व और एकलविहार का विच्छेद हो गया है / निबंध-१९ शास्त्र के बीच के अध्ययन का विच्छेद कैसे महापरिज्ञा नामक सातवाँ अध्ययन आज उपलब्ध नहीं है / संयम की, ब्रह्मचर्य की विशेष सावधानी और परिस्थितियों से पार होने की परिज्ञा का वर्णन होने से यह इसका सार्थक नाम समवायांग सूत्र में भी कहा है। प्राचीन टीका, चूर्णि, नियुक्ति एवं अन्य व्याख्याओं के देखने से लगता है कि इस अध्ययन में अधिकांशतः देवांगनाओं नरांगनाओं जनित उपसर्गों का मोहोत्पादक भाँति भाँति का वर्णन था और उससे मुनि को किंचित् भी लुभान्वित न होकर, अडिग रहने का उपदेश था। साथ ही किसी प्राचीन वर्णन अनुसार असह्य उपसर्गों के समय सामान्य विशेष साधुओं की सुरक्षा हेतु आकाशगामिनि आदि सहज विद्या के सत्र भी थे / जिसका यथा समय तत्काल उपयोग किया जा सके / मोहोत्पादक और विद्याओं से युक्त अध्ययन को लिखित करना योग्य नहीं समझ कर देवर्धिगणि के शास्त्र लेखन प्रसंग में अन्य बहुश्रुतों की सम्मति से इसे विच्छिन्न कर दिया गया / देवर्धिगणी के समय शास्त्रों के संपादन का पूर्ण अधिकार आचार्यों ने अपने हाथ में रखकर ही लेखन किया था। क्यों कि मौखिक ज्ञान तो सीमित रहता है, किंतु लिखित विषय आगे असीमित होना निश्चित है / अत: उपस्थित आचार्यों, बहुश्रुतों की सम्मति से 40
SR No.004414
Book TitleAgam Nimbandhmala Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilokchand Jain
PublisherJainagam Navneet Prakashan Samiti
Publication Year2014
Total Pages256
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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