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________________ आगम निबंधमाला उन्होंने संपादन का पूर्ण अधिकार भविष्य की हित बुद्धि से अपने हाथ में रखा था, जिसे अनुपयुक्त नहीं समझना चाहिये / कई सूत्रों में आज भी नंदी- समवायांग सूत्र से भिन्न वर्णन जो उपलब्ध है, उनका भी समाधान यही हो सकता है / बाकी तो विविध कल्पनाएँ, नये नये प्रश्न ही खडे करने वाली होती ह।। ___दृष्टांत के लिये आज भी सूयगडांग सूत्र का चौथा अध्ययन और उसका भी दूसरा उद्देशा स्त्रीचर्या से भरा हुआ है, जिसे आज भी वाचना देने सुनने में बहुत संकोच होता है। किंतु इसमें मोहोत्पादकता अत्यल्प है / जब कि महापरिज्ञा अध्ययन में तो देवांगनाओं द्वारा विविध मोहोत्पादक तरीकों का विस्तृत वर्णन रहा था, इसलिये लिपिबद्ध काल से विछिन्न समझ लेना ज्यादा समाधान कारक है / नियुक्तिकार श्री द्वितीय भद्रबाहु स्वामी देवर्धिगणी से 40-50 वर्ष बाद में ही हुए थे, उन तक कुछ परिचय परंपरा रही, जिससे उन्होंने नियुक्ति में इस अध्ययन के नाम की व्याख्या और विषय परिचय मात्र दिया है किंतु इस अध्ययन के सात उद्देशे होना बताकर भी कोई सूत्र वाक्य का अर्थ विवेचन या जिक्र नहीं किया है / इससे भी यह सहज समझ सकते हैं कि नियुक्तिकार के पूर्व ही यह अध्ययन विच्छिन्न हो गया था और वह निकट का समय देवर्धिगणी का और शास्त्र लेखन काल का ही आ पहुँचता है। बाद में चूर्णिकार ने भी नियुक्ति के आधार से मंतव्य दिया है / फिर टीकाकार श्री शीलांकाचार्य ने विच्छेद होने की बात मात्र कर दी है। उल्लेखनीय यह है कि लाडनू से आचार्य तुलसी, मुनि नथमलजी एवं अनेक तेरापंथ के विद्वान संतो ने मिलकर आचारांग सूत्र प्रथम श्रुतस्कंध का अर्थ, टिप्पण, व्याख्या अतिश्रम से इतने संत मिलकर भी तीन वर्ष में पूर्ण किया। उसमें छठे अध्ययन के बाद आठवाँ अध्ययन प्रारंभ कर दिया किंतु सातवाँ अध्ययन यहाँ क्यों नहीं कहा गया, इस बात को संपादकीय, भूमिका या परिशिष्ट, टिप्पण आदि पूरी पुस्तक में किंचित् भी स्पर्श भी नहीं किया, यह भी एक विचारणीय और आश्चर्यजनक घटित बना है / इससे यह अनुमान सहज किया जा सकता है कि बडे-बडे विद्वान
SR No.004414
Book TitleAgam Nimbandhmala Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilokchand Jain
PublisherJainagam Navneet Prakashan Samiti
Publication Year2014
Total Pages256
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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