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________________ आगम निबंधमाला पाप त्यागी, संयमी, अप्रमत्त को कोई भय नहीं रहता है / वह सब तरह से निर्भय हो जाता है / अथवा सर्व प्रकार से जो प्रमाद में पडे हैं उनको भय कर्मबंध और दुःख की प्राप्ति होती है और जो सर्वथा अप्रमत्त भाव, संयम भाव में लीन रहते हैं, उन्हें कर्म बंध और दुःख रूप कोई भय नहीं होता है / यह प्रश्नोक्त सूत्र के बाद का सूत्र है / इसमें भी संयमलक्षी विषय का प्ररूपण है / इसके आगे- जे एगं णामे से सव्वं णामे, जे सव्वं णामे से एगं णामे / - जो एक आत्मा को वश में कर लेता है, उस पर काबू पा लेता है; वह मन एवं इन्द्रिय सभी को वश में कर लेता है / जो मन और इन्द्रियों पर काबू पा लेता है वह अवश्य आत्मविजेता होकर आत्मदमन कर लेता है / यहाँ पर कषाय और कर्म को लेकर भी समझाया जाता है / उसमें अनंतानुबंधी और अन्य कषाय लिया जाता है अथवा मोह कर्म और अन्य कर्म लिया जाता है। फिर भी आत्मा मन और इन्द्रिय संबंधी अर्थ अधिक अनुकूल है। .. दुक्खं लोगस्स जाणित्ता, वंता लोगस्स संजोगं, जंति वीरा महा जाणं, परेण परं जंति, णावकंखंति जीवियं / - संसार के दु:खों को जानकर वीर पुरुष समस्त संसार संबंधी संयोगों का त्याग कर संयम साधना में लग जाते हैं और साधना में आगे से आगे बढ़ते रहते हैं / कभी भी पुनः असंयम जीवन की चाहना नहीं करते हैं / एगं विगिंचमाणे पुढो विगिंचइ, पुढो विगिंचमाणे एगं विगिंचइजो एक क्रोध कषाय को दूर करने में, छोडने में सफल होता है वह अन्य मान माया लोभ कषाय को भी त्याग सकता है और जो अन्य मान, माया, लोभ आदि किसी को भी त्यागने में सफल होता है, वह क्रोध का भी त्याग कर सकता है / तात्पर्य यह है कि जो किसी भी एक कषाय को दूर करने में, उस पर विजय पाने में सफल हो सकता है, वह अन्य किसी भी कषाय पर विजय प्राप्त कर सकता है, आत्मा से उन्हें अलग कर सकता है / अन्यत्र भी कहा गया है- विगिंच कोहं, अविकंपमाणो, इमं णिरुद्धाउयं संपेहाए / यहाँ पर भी क्रोध को दूर करने में विगिंच शब्द का प्रयोग किया गया है। इसी को लक्ष्य में रखकर ही ऊपर 'विगिंच' शब्द का अर्थ किया गया है / | 30 - - - - -
SR No.004414
Book TitleAgam Nimbandhmala Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilokchand Jain
PublisherJainagam Navneet Prakashan Samiti
Publication Year2014
Total Pages256
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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