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________________ आगम निबंधमाला सड्डी आणाए मेहावी, लोगं च आणाए अभिसमेच्चा, अकुओभयंबुद्धिमान साधक जिनाज्ञा में श्रद्धा करे और जिनाज्ञा के अनुसार श्रद्धा पूर्वेक संसार भ्रमण स्वरूप को समझ कर, चिंतन कर संयम स्वीकार करे अथवा सर्व जीवों को अभय दान दे / अत्थि सत्थं परेण परं, णत्थि असत्थं परेण परं / - संसार में एक एक से बढकर पाप कार्य हैं / किंतु समस्त पाप के त्यागरूप संयम तो एक ही है / हिंसा झुठ आदि विविध प्रकार के पाप हैं जब कि उन सब का पूर्ण रूपेण त्याग की अपेक्षा संयम एक है / यहाँ संयमी के असंख्य संयम स्थान रूप आत्म परिणामों की अपेक्षा नहीं है किंतु बाह्य पाप त्याग रूप संयम विधि की अपेक्षा है / ___ इस प्रकार यह पूरा अध्ययन संयम आचार वाला है / तदानुसार "जे एगं जाणइ से सव्वं जाणइ"सूत्र का अर्थ संयम की अपेक्षा ही करना चाहिये / निबंध-१४ . शरीर के प्रति उपेक्षा एवं अपेक्षा दोनों इस अध्ययन में शरीर के प्रति उत्कृष्ट दर्जे की उपेक्षा और निर्मोह भावना युक्त आचरण का उपदेश दिया गया है / मानव शरीर को अनुपम अवसर समझकर इस शरीर से जितना अधिक तप संयम का सार निकल सकता है, निकाल लेना चाहिये / इस शरीर का तनिक भी मोह नहीं करके इसे ऐसी भावना से देखना चाहिए कि यों ही इसे लोगों के द्वारा जला दिया जायेगा तो फिर उसको पुष्ट करने की अपेक्षा तप से सुखा डालने में, कृश करने में और अंत में अस्थि पंजर सा कर देने में बुद्धिमत्ता है / आगम शब्दों में मांस और खून को कम कर देने की, शरीर कृश कर देने की स्पष्ट प्रेरणा है तथा गन्ने को पीलने और दुबारा, तिबारा, प्रपीडन, निष्प्रीडन किया जाने के समान बारम्बार विकट तप के द्वारा मानव भव और मानव देह का पूरा कस(सार) निकालने का महान आदर्श उपदेश दिया गया है / ... इतने उत्कट विकट उपदेश प्रेरणा प्रवाह के साथ एक विवेक भी रखा गया है। जिसमें इतनी बडी शरीर उपेक्षाओं और निर्मोहता के 31
SR No.004414
Book TitleAgam Nimbandhmala Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilokchand Jain
PublisherJainagam Navneet Prakashan Samiti
Publication Year2014
Total Pages256
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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