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________________ आगम निबंधमाला निबंध-१२ सम्यग्दृष्टि को पाप नहीं लगता या साधु को इस अध्ययन के दूसरे उद्देशे में इस विषयक सूत्र इस प्रकार हैसमत्तदंसी ण करेइ पावं / आयंकदंसी ण करेइ पावं / इसके पूर्व वाक्य है- तम्हातिविज्जो परमं ति णच्चा / तम्हा-इसलिये; अतिविज्जो अति विद्वान, परम विद्वान, उत्तम ज्ञानी, परमज्ञानी, परमं ति णच्चा-मोक्षमार्ग को समझकर; समत्तदंसी-सदा समत्वदर्शी बनकर, सदा समत्व में रमण करने वाला होकर; ण करेइ पावं-पाप कर्मों का आचरण नहीं करता है। उसी प्रकार आतंकदर्शी-कर्मों के आतंक को भलीभाँति समझकर, कर्म स्वरूपको समझकर, उनसे सावधान रहने वाला आतंकदर्शी कहा गया है। वह भी पाप कर्म का आचरण नहीं करता है / दशवैकालिक सूत्र में यतना पूर्वक संयम प्रवृत्ति करने वाले को पापकर्म का बंध नहीं करने वाला कहा है। क्यों कि वह यतना भाव में और आचरण में रमण कर रहा है / उसी प्रकार यहाँ समत्व में रमण करने वालों को और कर्मों से सावधान रहने रूप अप्रमत्त भाव में रमण करने वालों को भी पाप आचरण करने का निषेध किया है। जिससे पाप बंध का निषेध तो स्वत: हो ही जाता है। विकल्प से सम्यग्दृष्टि अर्थ समत्त का किया जाता है और अपेक्षा से घटित भी किया जाता है। किंतु यहाँ शीतोष्णीय अध्ययन के प्रसंग में समत्व अर्थ अधिक उपयुक्त है और प्राचीन टीकाकार ने यह अर्थ किया भी है। निबंध-१३ जे एग जाणइ से सव्व जाणइ का मतलब अर्थ परंपरा में इस सूत्र के शब्दों पर मात्र दृष्टिपात करके तत्त्व दृष्टि का अर्थ प्रचलित है / इस कारण कुछ प्रासंगिकता समझने में कठिनाई होती है / इस आचारांग सूत्र में शब्दों के अर्थ करने की जो पद्धति अनेक जगह स्वीकार की गई है उसी तरह यहाँ भी अन्य / 28
SR No.004414
Book TitleAgam Nimbandhmala Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilokchand Jain
PublisherJainagam Navneet Prakashan Samiti
Publication Year2014
Total Pages256
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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