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________________ आगम निबंधमाला सहन नहीं करे अर्थात् मन को पूर्ण स्थिर तटस्थ समभाव में रखे / मनोज्ञ अमनोज्ञ शब्दादि पाँचों विषयों के संयोग में सहनशील बने / इहलौकिक पुद्गल संयोगों में आनंद और खेद दोनों से दूर रहे। इस प्रकार मुनि ममता मूर्छा भी न करे, ममत्व बुद्धि भी न रखे, मन की चंचलता को भी कम करे तथा पौद्गलिक आनंद और दःख दोनों में तटस्थ रहे, आसक्त न बने किंतु सभी प्रकार से, सभी संयोगों में अवस्थाओं में कर्म क्षय करने में लगा रहे / अंत में यह भी कह दिया गया है कि वह आहार में भी ममत्व भाव न रख कर त्याग भाव रखे / अच्छे एवं मनोज्ञ खाद्य पदार्थों का त्याग कर प्रांत, रूक्ष भोजन में संतुष्ट रहे / अंत में उपसंहार करते हुए कहा गया है कि उक्त ममत्व, ममत्व बुद्धि, रति-अरति भाव, पुद्गल आनंद, इस लौकिक आनंद और आहार का आनंद ये सभी वृत्तियाँ छोडने वाला मुनि संसार प्रवाह को पार कर सकता है अथवा पार किया है, मुक्त हुआ है, वही वास्तव में विरति भाव में उपस्थित है / इस प्रकार मुनि जीवन में तो ममत्व और ममत्व बुद्धि तथा सूक्ष्मतम ममत्व रूप रति अरति, मन की चंचलता, व्यग्रता, आसक्ति सभी के त्यागने का ध्रुव उपदेश है / जो आचा.अ.२ के छटे उद्देशे के प्रारंभ के सूत्र में है। निबंध-११ प्रवचन में विवेक एवं विषय .. उपदेश देने में स्वार्थ और संकीर्ण भाव न होना चाहिये / उपदेश का इच्छुक व्यक्ति गरीब अमीर कोई भी हो, उपदेश सुनाने में भेद भाव नहीं रखे, रुचि पूर्वक हार्दिक लगन से सुनावे / एक को हर्ष से, एक को दुर्मन से सुनावे, ऐसा न करे / उपदेश के विषय का निर्णय और उसका विवेचन विवेक बुद्धि के साथ करे / श्रोता को विरोधभाव उत्पन्न होवे वैसा नहीं बोले, आववेक से मनमाना उपदेश देना श्रेयष्कर नहीं होता है / सामने वाला व्यक्ति अथवा परिषद की मानस दशा या विचार दशा का अनुभव रखते हुए उनका कुछ हित हो, वह किसी भी तरह कर्म बंध से या 26 /
SR No.004414
Book TitleAgam Nimbandhmala Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilokchand Jain
PublisherJainagam Navneet Prakashan Samiti
Publication Year2014
Total Pages256
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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