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________________ आगम निबंधमाला है / तब वह विचार करता है कि यह सब मैंने अपने असंयम भावों से किया है, उसके कर्म बंध से मं मुक्त नहीं हो सकता। इस प्रकार वह ज्ञान दशा में पहुँचता है। ___ यहाँ 6 व्रत के स्थान पर 6 काया को परिलक्षित करके भी अर्थघटन किया गया है / तदनुसार साधक प्रारंभ में किसी एक काया की विराधना करने लगता है / फिर 6 काया में से किसी की भी विराधना करने में तत्पर होता रहता है। यहाँ सूत्र का अर्थ खींचतान करके एकांत रुप से किया जाता है जो कि योग्य नहीं है / यथा- एक व्रत दूषित करने वाला नियमत: सभी व्रत दूषित करता है / एक काया की विराधना करने वाला नियमत: सभी काया की विराधना करता है, यह अर्थ समझ भ्रम के कारण चल पडा है / नय युक्त विवेकमय अर्थ-भाव ऊपर स्पष्ट कर दिया गया है / एकांतिक अर्थ नहीं करना चाहिये। .. . निबंध-१० ममत्व त्यागने का उपदेश किसको साधु को ममत्व रखने का और ममत्व की बुद्धि प्रकृति रखने का भी सूत्र में निषेध किया गया है और यह भी कहा गया है कि वही मुनि संयम मार्ग को समझा है जिसका किसी में भी, कहीं पर भी ममत्व भाव नहीं है। यह जान-समझकर बुद्धिमान साधक लोकवृत्ति और लोकसंज्ञा अर्थात् संसार प्रवाहरूप ममता मूर्छाभाव का त्याग करता हुआ संयम में पुरुषार्थ करे / वह पाठ यह है- जे ममाइय मई जंहाइ, से ज़हइ ममाइयं / से हु दिट्ठपहे मुणी, जस्स णत्थि ममाइयं / तं परिण्णाय मेहावी, विदित्ता लोगं, वंता लोग सणं, से मइमं परक्कमेज्जासि / अतः साधु को शिष्य शिष्या का, श्रावक समाज का त्याग नहीं करना है किंतु इनके प्रति ममत्व बुद्धि का सदा त्याग रखना आवश्यक है / क्यों कि ममता मूर्छा ही परिग्रह है। इसके अतिरिक्त साधु को रति अरति रूप मन की चंचलता का त्याग करना होता है / वह साधक जीवन में रति भाव और अरति भाव दोनों को नहीं आने दे, नहीं रहने दे, किंचित् भी रति अरति को 25
SR No.004414
Book TitleAgam Nimbandhmala Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilokchand Jain
PublisherJainagam Navneet Prakashan Samiti
Publication Year2014
Total Pages256
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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