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________________ आगम निबंधमाला रहने की प्रेरणा, आत्मा की लघुता के चिंतन से या अहंकार रहित भावनाओं से मिलती रहेगी। ' इसी भाँति दूसरों की सभी अशुभ अवस्थाओं के साथ उनकी शुभ अवस्थाओं का, अवगुणों के साथ गुणों का, चिंतन उपस्थित करते रहने का अभ्यास करते रहने से, वहाँ भी मान कषाय कमजोर होकर गुस्से को उत्पन्न नहीं होने देगा। आगे दूसरे चिंतन के पहलू को दिखाया गया है कि अपने घमंड गुस्से के प्रतिफल से यदि किसी को वाचिक या कायिकं कुछ भी कष्ट दिया जाय तो वहाँ यह चिंतन भी करना चाहिये कि सभी प्राणियों को दु:ख अप्रिय है, मरना अप्रिय है, सभी सुखेच्छु हैं, जीना सब को प्रिय है, कटु शब्द या तिरस्कार के वचनों को कोई भी सुनना नहीं चाहता है किंतु इन सभी व्यवहारों से प्राणियों को दु:खानुभव होता है / अत: किसी के सुख को नष्ट करना, दु:ख में पटकना, कैसे उचित होगा? उसका परिणाम स्वयं के लिये भी हितकारी नहीं होगा। इस प्रकार के चिंतन से भी अपने गुस्से को निष्फल करना चाहिये। निबंध-९ एक व्रत में दोष तो सभी व्रत में दोष कैसे ? ___सुख की लालसाओं के बढने से अथवा दुःख से घबरा जाने से, व्याकुल हो जाने से, साधु का साध्वा चार से पतन होता है / स्वयं के अप्रमत्तभावों से अर्थात् वैराग्य और ज्ञान की जागृति होने से पुनः उत्थान हो सकता है / पतन के अभिमुख बना साधक पहले एक महाव्रत को दूषित करता है फिर रात्रि भोजन युक्त 6 व्रतों में से किसी भी व्रत के विपरीत आचरण करने में तत्पर हो जाता है अर्थात् एक दोष का प्रारंभ होने पर धीरे-धीरे अनेक दोष प्रवेश होने लगते हैं / मोह कर्मोदय के बलवान होने पर, उसे निष्फल नहीं करने से साधक की ऐसी दशा होती है। किंतु जब मोह कर्म उपशांत होता है या उसका उदय जोर कम हो जाता है अथवा अन्य किसी पुरुषार्थ से मोह का क्षय-क्षयोपशम बढता है तो साधक पुनः अप्रमत्त भावों के चिंतन में उपस्थित होता 24
SR No.004414
Book TitleAgam Nimbandhmala Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilokchand Jain
PublisherJainagam Navneet Prakashan Samiti
Publication Year2014
Total Pages256
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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