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________________ आगम निबंधमाला आता है उसमें असंख्यातवें भाग के असंख्य योजन जाने पर लोकमध्य आता है। (2) अधोलोक का मध्य- चौथी नरक के नीचे के आकाशांतर में करीब आधा जाने पर आता है / (3) तिरछा लोक का मध्य- मेरु पर्वत के बीच समभूमि पर आने वाले दो क्षुल्लक प्रतरों के आठ रुचक प्रदेश तिरछालोक का मध्य है। वहीं से 10 दिशाएँ निकलती है। अत: वह स्थल दिशाओं का भी मध्य केन्द्र है। (4) ऊँचालोक का मध्य- पाँचवें देवलोक के तीसरे रिष्ट पाथडे में है, वहीं तमस्काय की उपरी सतह है / दिशाओं का आकार संस्थान- 4 दिशाएँ, सगडुद्धि संस्थान-गाडी के जूए (धूसर)के समान है / 4 विदिशाएँ छिन्न मुक्तावली संस्थान वाली है / ऊँची-नीची दिशा चारप्रदेशी होने से रुचक संस्थान वाली है / 14 राजु लोक में सबसे कम चौडा तिरछालोक के क्षुल्लक प्रतर में है / उत्कृष्ट चौडा सातवीं नरक के आकाशांतर में है। मध्यम चौडाई वाला विस्तृत पाँचवें देवलोक में है। क्षेत्रफल की अपेक्षा तिरछालोक सबसे अल्प है, उर्ध्वलोक उससे असंख्यगुणा है और अधोलोक उससे विशेषाधिक है। निबंध-१३६ श्रावक के प्रत्याख्यान में करण-योग भगवती सूत्र शतक-८, उद्देशक-५ में श्रावक के अणुव्रत के लिए 49 भंग दिये गये हैं अर्थात् श्रावक उन व्रतों को इतने प्रकार के करण योगों से धारण कर सकता है / इसका मतलब यह नहीं है की हर कोई श्रावक किसी भी करणयोग के भंग से व्रत धारण करले। परंतु सूत्र पाठों में (उपासक दशा आदि में) स्पष्ट कहे गये करण योग से सामान्य रूप से श्रावक उन व्रतों के प्रत्याख्यान कर सकता है। विशेष करण योग स्वतंत्र बढाने या घटाने के लिये श्रावक की परिस्थिति एवं विशिष्ट योग्यता की आवश्यकता होती है। भगवती सूत्र शतक-८ उद्दे. 5 में यह भी वर्णन है कि सामायिक में बैठे श्रावक के कोई उपकरण चोर चुरा लेवे या उसकी पत्नी का कोई अपहरण कर लेवे तो सामायिक पूर्ण करने के बाद वह श्रावक उन पदार्थों की एवं अपनी पत्नी की गवेषणा करता हुआ अपनी चीजों की गवेषणा करता हैं क्यो कि ऐसे श्रावक के सामायिक के प्रत्याख्यान अमुक सीमा एवं करण योग के होते हैं। जिसमें वह उन पदार्थों का पूर्ण त्यागी तीन करण तीन योग से नहीं होता है। इस भगवती सूत्र के वर्णन अनुसार यह स्पष्ट होता है कि सामान्य घर-परिवारी एवं व्यापारी श्रावक सामायिक में तीन करण तीन योग रूप भंग से त्यागी नहीं होता है / किन्तु जो आनंद आदि श्रावकों की तरह निवृत्त 248
SR No.004414
Book TitleAgam Nimbandhmala Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilokchand Jain
PublisherJainagam Navneet Prakashan Samiti
Publication Year2014
Total Pages256
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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