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________________ आगम निबंधमाला स्वयं ज्ञान और विवेक युक्त सही चिंतन से कर लेना चाहिये या गुरु आदि के सहवास, संगति, संस्कार से उन वैचारिक या परिस्थितिजन्य बाधाओं को समाप्त कर देना चाहिये / उन्हें विचारों से निकाल देना चाहिये और लक्ष्य उत्साह श्रद्धा में पूर्ववत् स्थिर रहना चाहिये / यहाँ शास्त्र में श्रद्धा का शाब्दिक अर्थ, तत्त्व श्रद्धान या आस्था के लक्ष्य को प्रमुख करके बताया गया है कि एकेन्द्रिय जीवों के अस्तित्व की जो श्रद्धा-आस्था संयम ग्रहण के समय में हो उसमें संयम ग्रहण के पश्चात् कभी भी तर्कों में पड कर या मिथ्यात्व मोह के उदय से अभिभूत होकर इन जीवों के अस्तित्व का, दु:खों का, इनकी विराधनाओं का और इनसे संबंधित संयम विधियों का अपलाप नहीं करना चाहिये तथा उनका वचन या मन से कभी भी अस्वीकार नहीं करना चाहिये। अत्यंत विवेक और सावधानी से इन जीवों के प्रति मिली या बनी आस्था को स्थिर रखते हुए, इनसे संबंधित होने वाली विराधनाओं से पूर्णतया दूर रहना चाहिये तथा उससे संबंधित संयम विधियों में दत्तचित्त रहना चाहिय / यहाँ श्रद्धा और अपलाप शब्दो का तात्पर्य यह है कि कभी भी एसे वाक्यों से जीवों के या जीव विराधना के या संयम नियमों के निषेध या अवहेलना में नहीं उतर जाना चाहिये / यथा-"खान से निकल गया, अब उस पत्थर में या मिट्टी में क्या कैसा जीव है ? नल के पानी में क्या जीव है। अग्नि में तो कोई जीव रह ही नहीं सकता तो वह कैसे जीव है, हवा तो चलती रहती है, बल्ब में, टयूब में कहाँ से जीव घुसता है, बिजली का साधन तो भगवान के समय था ही नहीं, पानी तो पीने के लिये ही होता है, आकाश से गिरता तभी अचित हो जाता है फिर मुर्दे भी कभी जिंदे होते नहीं, तो पानी संचित क्यों होता, कैसे हो जाता ?" इत्यादि ऊपरोक्त ये सारे अश्रद्धा युक्त तार्किक वचन भगवद् कथित जीवों के अस्तित्व का तथा स्वरूप का अपलाप करने वाले हैं / ऐसे विचार और कथन नहीं करके श्रद्धा को यथावत् स्थिर रखना चाहिये। तर्कों से जीवों के अस्तित्व का निषेध करनेवाला व्यक्ति कभी अपने अस्तित्व का भी निषेध करके नास्तिक बन सकता है / उक्त भावों वाले आचा.अध्य-१ के तीसरे उद्देशक के आगम शब्द ये हैं / 21 /
SR No.004414
Book TitleAgam Nimbandhmala Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilokchand Jain
PublisherJainagam Navneet Prakashan Samiti
Publication Year2014
Total Pages256
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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