________________ आगम निबंधमाला दास-दासी, नौकर, कर्मचारी आदि रहते थे, गायें-भस, भेड-बकरे आदि अनेक पशु भी रहते थे / (9) अनेक लोगों में ऋद्धि और प्रतिष्ठा की अपेक्षा वे अपराभूत थे अर्थात् अनेकों से वे अधिक ऋद्धि संपन्न थे / धार्मिक आत्मगुण- (1) अभिगय जीवाजीवे-जीव तथा अजीव तत्त्व के स्वरूप को समझकर आत्मसात् किया था। पुण्य-पाप तत्त्व के अर्थ-परमार्थ को समझकर हृदयंगम किया था / आश्रव, संवर, निर्जरा, क्रिया, अधिकरण, बंध और मोक्ष के स्वरूप, साधन, आचरण को तथा बंधन और उससे मुक्ति के स्वरूप को समझे हुए थे। इस प्रकार वे 9 तत्त्व 25 क्रियाओं के तलस्पर्शी ज्ञाता थे / हेय, ज्ञेय, उपादेय तत्त्वों के ज्ञानी, तत्त्वज्ञ, तत्त्वाभ्यासी, तत्त्वानुभवी, तत्त्वसंवेदक और तत्त्वदृष्टा विद्वान थे / (2) अपने सुख-दु:ख को समभावपूर्वक सहन करते हुए कोई भी देवी-देवता से सहाय की आकांक्षा-इच्छा वे नहीं करते थे। अपनी धर्म श्रद्धा में वे इतने दृढ मनोबली अनुभवी थे कि कोई भी देव-दानव उन्हें धर्मश्रद्धा से विचलित नहीं कर सकता था / (3) निग्रंथ प्रवचन में अर्थात् जिनेश्वर भाषित किसी भी तत्त्व या आचार में संदेह रहित संदेहातीत थे, धर्म एवं धर्मफल में उन्हें अंश मात्र भी शंका नहीं थी। जिनधर्म के अतिरिक्त अन्य धर्मों में या उनके प्रवक्ताओं में उनकी कोई आकांक्षा या आकर्षण भी नहीं था। अतः वे अपने प्राप्त जिनधर्म में निष्ठा, रुचि से पूर्ण संतुष्ठ थे। (4) उन्होंने जिनधर्म के सूक्ष्म या गहन अथवा सामान्य से लगने वाले, यों सभी तत्त्वों का चिंतन मनन कर, योग्य प्रश्न चर्चा से उनके परमार्थ को, रहस्य ज्ञान को प्राप्त किया था एवं उसे आत्मा में विनिश्चित दृढीभूतं किया था / (5) धर्मप्रेम संबंधी अनुराग- आस्था-निष्ठा उनकी नश-नश में रग-रग में भरी हुई थी, उनके हाड-हाड में धर्मरंग उतर चुका था / (6) 'अयमाउसो ! णिग्गंथे पावयणे अढ़े...।' उनके धर्म रंग की उत्कृष्टता इस प्रकार प्रमाणित थी कि वे जब जहाँ भी कुछ श्रावक इकट्ठे होते, धर्मचर्चा होती तो उनके अंतर के सहज शब्द निकलते थे कि इस जीवन में कुछ भी सारभूत तत्त्व है तो वह निग्रंथ प्रवचन ही एक मात्र अर्थभूत है, परमार्थ स्वरूप है, प्रयोजन भूत है। शेष सभी संसार प्रपंच असारभूत है, अनर्थभूत है, दु:खदायक या दुःखमूलक [ 203