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________________ आगम निबंधमाला . . है / (7) उसिहफलिहा-अवंगुयदुवारा- वे उदार थे, दानी थे, उनके घर के द्वार सदा याचकों के लिये खल्ले रहते थे अर्थात् कोई भी याचक वहाँ से कुछ न कुछ पा लेता था। सभी के लिये उनके भाव उदार थे, दिल दरियाव था। उन्हें किसी से किसी प्रकार का भय नहीं था, खुले द्वार वाले थे। (8) चियत्त अंतेउर-घर-पवेसा- किसी भी घर या राजा के रणवास में उनका प्रवेश चियत्त= प्रतीतकारी था अर्थात् उनका शील-समाचरण, जीवन-व्यवहार, समाज में लोगों में एवं राज्य में पूर्ण विश्वस्त था। उनका चारित्र-स्वदार संतोषव्रत निर्मल था ख्याति प्राप्त था। (9) वे अनेक प्रकार के त्याग-प्रत्याख्यान, अणुव्रत-गुणव्रत, सामायिक-पौषध आदि धारण करने में उत्साही आलस्य रहित थे। (10) श्रमण निग्रंथ को यथाप्रसंग उनकी अनुकूलता अनुसार आहारादि 14 प्रकार के निर्दोष तथा संयम सहायक पदार्थ का दान देते हुए स्वयं भी यथाशक्ति तप संयम का आचरण करने वाले थे / आत्मा को उसी में भावित करने वाले थे / ये गुण प्रत्येक श्रावक में होने चाहिये, आगम में श्रेष्ठ आदर्श श्रमणोपासक के वर्णन में प्रायः ये विशेषण-गुण सर्वत्र विस्तृत या संक्षिप्त किसी न किसी रूप में प्राप्त होते हैं / भौतिक जीवन की विशालता और धार्मिक जीवन को महानता दोनों के सुमेल युक्त श्रावक का जीवन श्रेष्ठ एवं आदर्श गिना जाता है / निबंध-११० ईशानेन्द्र का पूर्वभव. दूसरे देवलोक का इन्द्र ईशानेन्द्र पूर्व भव में तामली तापस था। उसने तापसी दीक्षा ली थी। उसका कथानक इस प्रकार है ताम्रलिप्ति नगरी में मौर्यवंश में उत्पन्न मौर्यपुत्र तामली नामक गाथापति शेठ रहता था। वह धनाढ्य एवं ऋद्धि संपन्न था और अनेक मनुष्यों द्वारा सन्मानित था / एक बार रात्रि में उसे विचार हुआ कि पुण्य से प्राप्त इस सामग्री का एकांत भोग करके एक मात्र क्षय करना ही उपयुक्त नहीं है / मुझे पुण्य रहते एवं समय रहते कुछ आत्मसाधना करनी चाहिये / तदनुसार उसने प्राणामा प्रव्रज्या / 204
SR No.004414
Book TitleAgam Nimbandhmala Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilokchand Jain
PublisherJainagam Navneet Prakashan Samiti
Publication Year2014
Total Pages256
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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