SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 186
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आगम निबंधमाला वेदनीय। (17-18) क्षीणदर्शन-चारित्र मोहनीय / (19-22) क्षीण नरकायु आदि / (23-24) क्षीण शुभ-अशुभ नाम / (25-26) क्षीण ऊँच-नीच गोत्र। (27-31) क्षीण दानांतराय आदि; इन सभी कर्मप्रकृतियों से मुक्त होना, ये ही सिद्धों के गुण माने गये हैं , कहे गये हैं। निबंध-९६ संवत्सरी 50-70 दिन का विश्लेषण __ संवत्सरी के लिये आगम निशीथ सूत्र में पर्युषंणा शब्द का प्रयोग किया गया है / संवत्सरी शब्द वर्तमान प्रचलित शब्द है / जिसका अर्थ है- पूरे संवत्सर में विशिष्ट धर्म आराधना का एक दिन, वह संवत्सरी पर्व दिन / इस पर्व दिन के लिये निशीथ सूत्र उद्देशक 19 में विशिष्ट विधान है जिसके भाष्यादि प्राचीन व्याख्याओ में भादवा सुदी पंचमी का उल्लेख मिलता है, जिसमें प्राचीन सभी व्याख्याएँ एक मत है। उनमें अधिक मास या तिथि घट-वध से पंचमी या भादवा के परिवर्तन की कोई चर्चा-विवाद की गंध मात्र भी नहीं है / प्रस्तुत सूत्र के 70 वें समवाय में एक सूत्र में यह निरूपण है कि "श्रमण भगवान महावीर वर्षाकाल का 1 महीना 20 दिन बीतने पर और 70 दिन शेष रहने पर वर्षावास पर्युषित करते थे।" विचारणा- भगवान महावीर के 42 चातुर्मास का वर्णन जो भी प्राप्त होता है उसके अनुसार उन्होंने सभी चातुर्मास चार महीनों के ही किये थे। तो भी यहाँ भगवान के नाम से जो कुछ कहा गया है वह संदेहपूर्ण है / क्यों कि इसमें अनेक प्रश्नचिह्न अंकित होते हैं, यथा- यह विषय सित्तरवें समवाय में ही क्यों कहा? बीसवें या पचासवेंसमवाय में क्यों नहीं कहा? चातुर्मास का कथन है या पर्युषण का कथन है ? वगैरह..। वास्तव में कल्पसूत्र में ऐसा एक पाठ है जो बहुत लंबा एवं तर्क से असंगत सा है, उसी का यह प्रथम वाक्यांश है / कल्पसूत्र के उस कल्पित से पाठ को प्रामाणिकता की छाप के वास्ते उसके एक अंश को यहाँ अंगसूत्र में कभी भी किसी ने लगा दिया हो, ऐसी संभावना लगती है। अतः प्रस्तुत सूत्र से संवत्सरी के निर्णय की कल्पना करना सही नहीं है / इस सूत्र के नाम से 49-50 दिन की कल्पना करना और मूल में / 186 -
SR No.004414
Book TitleAgam Nimbandhmala Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilokchand Jain
PublisherJainagam Navneet Prakashan Samiti
Publication Year2014
Total Pages256
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy