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________________ आगम निबंधमाला . आये। भगवान के पार्थिव देह का अंतिम संस्कार, दाह संस्कार, निर्वाण महोत्सव मनाकर चले गये / उपरोक्त समस्त वर्णन व्याख्या ग्रंथों, इतिहास ग्रंथों में अन्य अन्य तरह से मिलता है। उन सभी का परिप्रेक्षण कर संक्षिप्त सार रूप में यहाँ सूचित किया है। (7) हरिवंशकुलोत्पत्ति- सामान्यतया युगलिक मनुष्यों की वंश परंपरा, वंश विस्तार नहीं होता है। हम दो और हमारे दो की व्यवस्था ही चलती है अर्थात् प्रत्येक युगलिक के उम्र के 6 महीना शेष रहने पर दो संतान पुत्र-पुत्री होते हैं और वे ही बडे होने पर पति-पत्नि रूप व्यवहार करते हैं / फिर वे भी दो संतान को जन्म देकर 6 महीने बाद मर जाते हैं / इस प्रकार वंश-विस्तार नहीं होकर दो की परंपरा ही चलती है। एक बार हरिवर्ष क्षेत्र के हरि-हरिणी नामक युगलिक को एक वैरी देव ने उठाकर भरत क्षेत्र में चंपानगरी में रख दिया और उन्हे राजा-राणी बनाने की. व्यवस्था करके चला गया। फिर उस राजा के अनेक संतति परंपरा चली। उसका वंशहरिवंश रूप में विख्यात हुआ। देव ने पूर्वभव के वैर के फलस्वरूप युगलिक को दु:खी करने के लिये यह तरीका अपनाया था। क्यों कि युगलिक क्षेत्र स्वभाव से वहाँ उसे दुःख नहीं पहुँचाया जा सकता था और वहाँ से मरकर भी वह युगलिक मनुष्य देव बनेगा तो अपने से बडा देव बनने से उसे वहाँ भी दुःख नहीं पहुँचा सकूँगा। ऐसा जानकर शत्रु देव ने युक्ति निकाली और शरीर की अवगाहना छोटी करके भरत क्षेत्र में लाकर राजा बना दिया और मद्य-मांसाहारी भी बना दिया, जिससे वह राजा मरकर नरक में गया। इस प्रकार देव ने अपना वैर पूर्ण किया। किंतु लोक में यह अनहोनी घटना बन गई कि युगलिक का इस प्रकार परिवर्तन हुआ, हरिवंश परंपरा चली। यह समस्त वर्णन भी व्याख्याग्रंथों में मिलता है / (8) चमर उत्पात- चमरेन्द्र ने देव रूप जन्म धारण करते ही शक्रेद्र के साथ द्वेषभाव रखकर अकेला ही उनका अपमान करने के लिये पहले देवलोक में पहुँच गया। उसके सामानिक देवो ने मना भी किया किंतु वह जन्मते ही अपनी ऋद्धि के गर्व में नशे में चूर हो गया और भगवान महावीर स्वामी का शरण लेकर गया। किंतु शक्रंद्र के बल के सामने हार खाकर वापिस आना पड़ा। इस प्रकार चमरेंद्र ने प्रथम देवलोक में जाने | 172
SR No.004414
Book TitleAgam Nimbandhmala Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilokchand Jain
PublisherJainagam Navneet Prakashan Samiti
Publication Year2014
Total Pages256
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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