________________ आगम निबंधमाला परिक्रमा करते हएं भरतक्षेत्र की सीमा को उपर से पार करते हए भगवान महावीर के संथारे की नगरी के सीध से निकल कर शाम को आगे बढ़ रहे थे कि उनके शरीर में अंग स्फुरणा होने से, अवधिज्ञान का उपयोग लगाने से, भगवान के संथारे की जानकारी होने पर, अत्यंत निकट में ही होने से, व्यग्रता और उपयोग शून्यता से, देव विधि को भूलकर चंद्र-सूर्य दोनों अपने मूल विमान सहित उस नगरी के उपर आकाश में विमान को रोककर, स्वयं दोनों अपने अपने विमान से उतर कर भगवान के समवसरण में उपस्थित हुए थे। संध्या का समय था कुछ समय भगवान की पर्युपासना की, पर्षदा में बैठे, प्रवचन सुना और पुनः विमानों को लेकर यथास्थान पहुँचकर पुनः पूर्ववत् परिक्रमा में चलने लगे / नगरी से जाने के समय उस क्षेत्र का सूर्यास्त समय हो चुका था। विमानों का नगरी में उपर ही स्थित रहने से दिन जैसा बना रहा और चले जाने पर अचानक शीघ्र अमावश की रात्रि का संध्या समय प्रारंभ हो गया था। उस समय मृगावती आर्या भी अपने साध्वी समूह के साथ समवसरण में थी। सूर्य विमान के वहाँ होने से सूर्यास्त का ज्ञान नहीं हो सका। अचानक संध्या समय हुआ जानकर मृगावतीजी आर्या शीघ्र वहाँ से निकलकर अपने उपाश्रय में चंदना आर्या के सानिध्य में पहुँच गई थी। देरी से आने के कारण उपालंभ भी सुनना पड़ा था। उसी उपालंभ और भूल की विचारणा में रात्रि के समय सभी के निद्राधीन हो जाने पर भी मृगावती धर्म जागरणा करती रही थी। उसी जागरणा में अमावश की अंधेरी रात्रि में उसे केवलज्ञान उत्पन्न हो गया था। चंदना आर्या के पास से सर्प को जाते हुए ज्ञान से देखा और उनका हाथ सर्प के चलने के रास्ते में होने से मृगावती ने हाथ उठाकर ठीक से रख दिया, सांप चला गया किंतु चंदना आर्या की निद्रा भंग हो गई, वह उठ गई; हाथ उठाने का कारण पूछा / मृगावती के सत्य उत्तर-प्रत्युत्तर से मालुम पडा कि इसे केवलज्ञान हो गया है, तब चंदना आर्या को भी शुभ अध्यवशायों से क्रमशः आगे बढ़ते हुए केवलज्ञान उत्पन्न हो गया। उसी रात्रि में अंतिम प्रहर के अंतिम विभाग में भगवान महावीर स्वामी निर्वाण पधारे और गौतम स्वामी को भी उसी दिन केवलज्ञान केवल-दर्शन उत्पन्न हुआ। कार्तिक सुदी एकम के दिन 64 ही इन्द्र अपने देव देवी समूह के साथ [171]