________________ आगम निबंधमाला . अत: व्यक्ति को अपने शरीर स्वभाव और समयानुसार शौच निवृत्ति की या लघुशंका निवृत्ति की सुविधा का ध्यान अवश्य रखना चाहिये। साधुजीवन में गमनागमन के कार्य प्रायः दिन में करने के होते हैं तथापि शारीरिक बाधा कहाँ कब हो जाय इसके लिये शास्त्र में पहले से ही स्पष्ट सूचना की गई है कि साधु जहाँ भी रहे, वहाँ आसपास में मल-मूत्र विसर्जन की, परठने की जगह का आवश्यक रूप से निरीक्षण-प्रतिलेखन कर लेवे। (7) अति चलने से- शरीर की अपनी क्षमता होती है उसका ध्यान रखकर मर्यादा युक्त ही चलना चाहिये / इसकी मर्यादा प्रत्येक व्यक्ति की क्षमता अभ्यास के अनुसार होती है। अत: बिना विचारे कभी कोई भी निमित्त से मर्यादातीत ३०-४०-५०-७०कि.मी. चलने से परेशानी हो सकती है, अत: चलने में विवेक युक्त निर्णय करना चाहिये। (8) भोजन की प्रतिकूलता से- रात्रि भोजन आदि किसी कारण से गलत पदार्थ भोजन में खाने में आ जाने से,खाद्यपदार्थकी समय मर्यादा अधिक हो जाने से उसमें विकृति हो गई हो, सड गये हो या लीलन-फूलन उत्पन्न हो गई हो, कीडी-मक्खी आदि जीवयुक्त हो या विषयुक्त हो ऐसे पदार्थ खाने में आ जाय तब अनेक प्रकार की बिमारियाँ उत्पन्न हो सकती है / समय पर खाना न मिले, भूख से संतप्त रहना पडे या खुद की आदत-प्रकृति अनुसार अथवा शरीर की आवश्यकतानुसार आहारपानी, औषध-भेषज आदि न मिले; इत्यादि भोजन की प्रतिकूलताओं से भी रोगोत्पत्ति होती है। अत: सामान्यतया व्यक्ति को अपने भोजन की व्यवस्था का, समय का, मात्रा का एवं पदार्थों का विवेक पूर्वक ध्यान रखना चाहिये। (9) इन्द्रियों का, शरीर के अवयवों का अति उपयोग या गलत ढंग से उपयोग-दुरुपयोग करने से- अति वाजिंत्र श्रवण, अति नाटक, सिनेमा, टी.वी. देखना, अति सुगंधी पदार्थों का प्रयोग, अति भाषण, अति मात्रा में पंखा-कूलर, ए.सी. का उपयोग, अति अग्निताप अति कामभोग सेवन, अति मानसिक चिंता-शोक आदि ये सभी इन्द्रियों के अति उपयोग और दुरुपयोग भी रोगोत्पत्ति के कारण बनते हैं, अत: इन 1 દર)