________________ आगम निबंधमाला प्रत्येक व्यक्ति को अपने श्रम-जीवन के अनुकूल एवं अवस्था के अनुकूल समय प्रमाण सोने का विवेक रखना चाहिये / 2-3 वर्ष तक के बच्चों के लिये कोई नियम नहीं बनता है। विद्यार्थी जीवन में सामान्यतया 6 घंटे न्यूनतम एवं 10 घंटे अधिकतम समझना चाहिये / युवा-प्रौढ अवस्था में 6 घंटे न्यूनतम एवं 8 घंटे अधिकतम सोना स्वास्थ्यप्रद रहता है। आत्म साधना में रत साधकों के लिये उनके निरंतर के अभ्यास और मानस परिणति के अनुसार एक प्रहर तीन घंटे की निद्रा-शयन से भी विशिष्ट साधकों का काम चल सकता है, सामान्य तौर से दो प्रहर छ घंटे की निद्रा-शयनरूप विश्राम भी अनेक साधकों के लिये पर्याप्त होता है। अतिश्रम, विहार आदि कारणों से अधिकतम आठ घंटे शयन-निद्रा कदाचित्क हो सकते हैं। खास करके साधनाशील साधकों को अधिकतम अप्रमत्त दशा में स्वाध्याय ध्यान में लीन रहना होता है तथापि न्यूनतम तीन घंटे विश्राम-निद्रा करना औदारिक शरीर स्वभाव से उनको भी योग्य होता है / तीर्थंकर सरीखे विशिष्ट साधकों के लिये निद्रा लेने का कोई न्यूनतम नियम भी नहीं होता है / सामान्य मानव को कभी 1-2 दिन-रात निद्रा न करके जागरण करना आवश्यक हो जाय तो भी शरीर संचालन चल सकता है अति जागरण भी निरंतर हो जाने से अनेक रोगोत्पत्ति के कारण बन सकते हैं। अति निद्रा लेने से भी शरीर के आवश्यक संचालनों में अधिक अवरोध होता है वह भी स्वास्थ्य के लिये क्षम्य नहीं होता है। पाचन शक्ति के व्यवस्थित संचालन के लिये शरीर के हलनचलन आदि की अनेक प्रक्रियाएँ आवश्यक होती है, अधिक सोने से उनमें अव्यवस्था होती हैं, जो रोगोत्पत्ति में निमितभूत बनती है। अतः सार यह है कि विवेक युक्त योग्य मर्यादा का ध्यान रखते हुए ही निद्रा एवं जागरण किया जाना निरोग रहने के लिये श्रेयस्कर होता है / (5-6) मल-मूत्र की बाधा को रोकने से- स्वस्थ शरीर में पाचनतंत्र की सुंदरता से मलमूत्र का विसर्जन संकेत स्वतः हो जाता है उसमें कुछ सीमित समय अवधारण की सहज क्षमता शरीरावयवों की होती ही है। शरीर बाधा को अधिक रोकने से अनेक विचित्र रोग उत्पन्न हो सकते हैं,