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________________ आगम निबंधमाला सभी प्रवृत्तियों में विवेक ज्ञान और मर्यादित व्यवहार का ध्यान रखना चाहिये / सामान्यतया 9 की संख्या के अंतर्गत ये कारण कहे गये हैं, अन्य अनेक कारणों का समावेश इनमें यथायोग्य कर लेना चाहिये / विशेष में व्यक्ति के अपने शुभ-अशुभ कर्मोदय ही इसमें मुख्य कारण बनते हैं। जिससे कभी ये गलतियाँ करने पर भी रोग न होवे और कभी ये गलतियाँ नहीं करने पर भी रोग हो जावे, ऐसा शक्य है / तथापि सामान्यतया शरीर स्वभाव की अपेक्षा से कही गई इन बातों का ध्यान रखने से व्यक्ति अनेक रोगों से सुरक्षित रह सकता है / व्यवहार सापेक्षता की अपेक्षा ये निमित्त कारण भी महत्त्वशील है, इसीलिये शास्त्र में यथाप्रसंग इनका संकेत किया गया है / साधक के साधना जीवन में स्वस्थ रहना साधना की सफलता में अत्यंत महत्त्व रखता है। इसलिये आत्म साधकों को भी इन बातों का अपने क्षयोपशम प्रमाणे अवश्य विवेक रखना चाहिये / निबंध-८२ . पुण्य संबंधी विविध विचारणा . प्रस्तुत स्थान के सूत्र-२४.में नव प्रकार के पुण्य कहे हैं / पुण्य शब्द का प्रयोग जैन साहित्य में तीन प्रकार से अर्थात् तीन अर्थ में हुआ है, यथा-पुण्य प्रकृति, पुण्य प्रवृत्ति, पुण्य बंध / (1) पुण्य प्रकृतिकर्मों की 148 प्रकृतियों में जो शुभ फलदायी है वे पुण्यकर्म प्रकृति रूप गिनी गई है और जो अशुभ फलदायी है वे पाप प्रकृति गिनी गई है / चार घातीकर्मों की सभी प्रकृतियाँ पाप प्रकृति रूप गिनी गई है, 4 अघातीकर्मों की प्रकृतियें दोनों प्रकार की है अर्थात् 1. शाता-अशाता वेदनीय २.देवायु-नरकायु ३.शुभनाम-अशुभनाम ४.ऊँचगोत्र-नीचगोत्र / (2) पुण्य प्रवृत्ति- जिस प्रवृत्ति में दूसरों को सुख पहुँचाने का उद्देश्य होता है, आत्मा के परिणाम शुभ होते हैं एवं जिस प्रवृत्ति से आत्मा में शभ कर्मबंध की अर्थात् पुण्य प्रकृति बंध की मुख्यता होती है वे सभी प्रवृत्तियाँ पुण्य प्रवृत्तियाँ कही जाती है ।अपेक्षा से यहाँ उन पुण्य प्रवृत्तियों को 9 भेदों में समाविष्ट करके 9 प्रकार के पुण्य अर्थात् 9 प्रकार की पुण्य प्रवृत्तियाँ कही गई है। 163
SR No.004414
Book TitleAgam Nimbandhmala Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilokchand Jain
PublisherJainagam Navneet Prakashan Samiti
Publication Year2014
Total Pages256
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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