________________ आगम निबंधमाला संसार व्यवहार में लग जाते हैं / वैसे ही प्रौढ उम्र के देव गंभीरता से अपने स्थान में प्राप्त सुखभोगों में लीन रहते हैं। देवलोक में देवों के चैत्यवृक्ष या कल्पवृक्ष :- इस सूत्र के आठवें स्थान में आठ व्यंतर देवों के आठ चैत्यवृक्ष कहे हैं और दस भवनपति देवों के दस चैत्यवृक्ष प्रस्तुत दसवें स्थान के सूत्र-७४ में कहे हैं / तीसरे स्थान के सूत्र-२३ में कहा है कि अपने कल्पवृक्ष की कांति फीकी-झांखी लगने से देवों को अपने च्यवन(मृत्यु) होने का ज्ञान हो जाता है। इन वर्णनों से ऐसा ज्ञात होता है कि देवों की सुधर्मासभा के बाहर पृथ्वीकाय के चबूतरे सहित रत्नमय वृक्ष होते हैं / भवनपति एवं व्यंतर जाति के देवों के इन वृक्षों को चैत्यवृक्ष कहा गया है। ये वृक्ष देवों के चित्त को आनंदित करने वाले होने से चैत्यवृक्ष कहे जाते हैं। भवनपति व्यंतर देवों में इन सभी चैत्यवृक्षों के नाम जो पीपल आदि कहे गये हैं वे उन देवों के अपने पसंदगी को प्रगट करते हैं / वहाँ उन जाति के वे वृक्ष पृथ्वीकाय के होते हैं और शाश्वत होते हैं / तथा उन-उन देवों के मुकुट में एवं वस्त्रों में भी अपने उस पसंदगी के वृक्ष चिन्हित होते हैं / ज्योतिषी वैमानिक देवों के चैत्यवृक्षों का कथन यहाँ नहीं आया है। उन देवों के च्यवन होने के ज्ञानसंबंधी सूत्र में कल्पवृक्ष का कथन है। च्यवन रूप मरण शब्द प्रयोग शास्त्र में ज्योतिषी वैमानिक के लिये ही होता है / अत: यह स्पष्ट हुआ कि चारों जाति के देवों के ये वृक्ष होते है उसमें भवनपति-व्यंतर देवों के वृक्ष को चैत्यवृक्ष कहा गया है और उनकी एक-एक वृक्षजाति(पीपल आदि) नाम भी होता है / ज्योतिषी वैमानिक के इन वृक्षों को मात्र कल्पवृक्ष कहा गया है, अत: उन सभी के एक ही जाति के कल्पवृक्ष रूप वृक्ष होते है / ये भी रत्नों की अद्भुत कांति शोभा से युक्त होते है और उन देवों को परम आह्लादकारी होते हैं / स्थान 3-1-32 में चैत्यवृक्ष चलित होना कहा है। 3-3-23 में कप्परुक्खगं मिलायमाणं कहा है, यहाँ की व्याख्या-टीका में लिखा है कि कप्प रुक्खगं ति चैत्यवृक्षं-कल्पवृक्ष का मतलब चेत्यवृक्ष / अर्थात् ये दोनों एक ही है / भवनपति व्यंतर देवों के वृक्षों की चैत्यवृक्ष संज्ञा है और ज्योतिषी वैमानिक देवों के वृक्षों की | 159