________________ आगम निबंधमाला .. ही नहीं ऐसा नहीं होता किंतु सावधानी अनुभव बढाकर सभी कार्य यथायोग्य किये जाते हैं। अत: एक देव साधु रूप में 6 महीना शरीर में रह गया तो सभी साधुओं का व्यवहार बंद कर देना, सदा संदेहशीलं ही बने रहना, ऐसा करना उचित नहीं है / (4) प्रत्येक वस्तु की पर्याय क्षण विनाशी होती है, परिवर्तित होती. रहती है, उसे उतने रूप में ही न मान कर प्रत्येक द्रव्य को ही क्षण विनाशी मान लेना कि पर्याय भी तो द्रव्य की ही है, अतः सभी. द्रव्य (पदार्थ)क्षणविनाशी है और दूसरे नूतन उत्पन्न हो जाते है / यह भी मिथ्यात्व-अज्ञान के उदय के जोर से भ्रमित मान्यता है / वास्तव में पर्याय का स्वरूप अलग है, द्रव्य का अस्तित्व अलग है / यथा- सोने के एक आभूषण से दूसरा तीसरा आभूषण बना लेने पर भी सोना विनष्ट नहीं होता है। वैसे ही पर्याय के बदलने पर, नष्ट होने पर भी द्रव्य शाश्वत या दीर्घ पर्याय में रह सकता है, उसका क्षण में नष्ट होना एकांत रूप से मान लेना योग्य नहीं है। यथा- कोई साधु बना तो एक समय बाद उसका साधुत्व नष्ट नहीं होगा, जीवनभर भी उसका साधुत्व रहता है किंतु उसकी पर्याय, स्वरूप परिवर्तित होतेरहते हैं / इस निह्नव की मान्यतानुसार तो दूसरे समय कोई साधु ही नहीं रहता है / वास्तव में वैसा मानना अनुभव या व्यवहार से विरूद्ध होता है। , (5) एक समय में दो क्रियाओं का अनुभव होता है। भगवान का सिद्धांत यह है कि स्थूल रूप से भले एक समय में अनेक क्रिया होती दिखती है तथापि सूक्ष्म 1 समय में आत्मा एक ही क्रिया का अनुभव करता है / एक समय में एक ही उपयोग होता है / अपना क्षायोपशमिक ज्ञान असंख्य समय के अंतर्मुहूर्त का होता है अर्थात् हमारी ग्रहणशक्ति सूक्ष्म समय की नहीं होती है, असंख्य समय के अंतर्मुहूर्त प्रमाण ही हमारी उपयोग क्षमता होती है। स्वयं तीर्थंकर भी अपने अवधिज्ञान से अपने वाटे वहेता के 1,2,3 समय के काल की क्रिया का अनुभव नहीं करते है, अंतर्मुहूर्त का गर्भ संहरणकार्य जो देव द्वारा क्षण मात्र में किया जाता है उसे अवधिज्ञानी तीर्थंकर जानते देखते हैं क्यों कि वह हमारी दृष्टि से देव क्षणभर में करता है किंतु वास्तव में सूक्ष्म दृष्टि से असंख्य समय | 154 -