________________ आगम निबंधमाला 6 षडुलूक | जीव, अजीव, मिश्र वीरनिर्वाण 554 वर्ष बाद (रोहगुप्त) तीन राशि 7 गोष्ठामाहिल | कर्मबद्ध नहीं, स्पृष्टमात्र | वीरनिर्वाण 584 वर्ष बाद वीरनिर्वाण और गणधरों के निर्वाण के बाद हुए श्रमणों के ये नाम देवर्द्धिगणि द्वारा किये गये लेखन के समय इस शास्त्र में सपादित हुए होंगे, ऐसा समझ लेना चाहिये / सातों के मत और समन्वय-समाधान- (1) कार्य मात्र अंत में होता है करते समय कार्य नहीं होता है, पूर्ण हो जाने पर कार्य होता है, यथावस्त्र बनाना चालु है तब तक वस्त्र नहीं होता है पूरा बनने पर वस्त्र कहा जाता है. अत: अंत में ही कार्य होता है यह सत्य है / जब कि भगवान का सिद्धांत है किये जाने के प्रत्येक क्षण देशत: वह कार्य होता ही है उस लक्षित संपूर्ण कार्य की पूर्णता अंत में होती है तो अन्य समयों में भी कार्य का अंशत: होना स्वीकारना ही चाहिये / अंशतः होगा तभी पूर्णता को प्राप्त होगा। (2) जीव के अंतिम प्रदेश शरीरमें से निकलते हैं तब तक उसमें हलन-चलन जीवत्व देखने में आता है उसे देख कर कोई मान ले कि वास्तव में अंतिम प्रदेशों में ही जीवत्व है अन्य में नहीं, क्योंकि उनके निकल जाने पर भी अंतिम प्रदेशों के अस्तित्व से जीवत्व लक्षण दिखते हैं; तो यह प्ररूपणा मात्र एकांतिक और मूर्खता पूर्ण एवं अज्ञान-मिथ्यात्व के नशे का कथन है / सभी आत्मप्रदेशों में और संपूर्ण शरीर में व्याप्त जीव में सर्वत्र चेतनत्व जीवत्व शक्ति होती है इसलिये कोई भी चरम मध्यम आदि के प्रदेश हों, वे जब तक शरीर में रहेंगे तब तक उन सभी से चेतनत्व गुण हलन-चलन आदि रहेंगे। (3) सब कुछ संदेहशील है, कौन साधु है और कौन देवता आकर साधु के शरीर में है, इसका निर्णय नहीं हो सकता। अतः कोई किसी को साधु समझना वंदन करना योग्य नहीं है / इसका समाधान यह है कि कभी कोई घटना घटित हो जाय, धोखा हो जाय तो भी सावधानी वर्ती जाती है किंतु सारा व्यवहार बंद नहीं कर दिया जाता है / यथा- कभी कोई भोजन से विष परिणमन हो जाय या कोई व्यापार में नुकशान धोखा हो जाय तो सारे मानव सभी व्यापार या खाना बंद नहीं करेंगे। एकं नौकर विश्वास जमाकर धोखेबाजी करके भाग जाय तो कभी कोई नोकर रखे [153