________________ आगम निबंधमाला श्रमण अपना जैन पंचांग अज्ञात समय से स्वतंत्र बनाने लगे हैं। वे भी मौलिक आधार सहयोग तो लौकिक पंचांग का लेते ही हैं / निबंध-७७ आयुष्य कर्म में घट-वध संभव आयुष्य कर्म दो प्रकार का बांधा जाता है-सोपक्रमी और निरुपक्रमी / (1) सोपक्रमी का मतलब ही यही के कि जो कभी भी निमित्त मिलने से टूट सकता है और कोई निमित्त नहीं मिले तो पूरा भी चल सकता है / (2) निरुपक्रमी का मतलब स्पष्ट है कि उसमें कोई भी निमित्त से उपक्रम से घट-वधं नहीं होती है, जितना आयुष्य बांधकर जीव लाया है उतना पूरा चलेगा। वास्तव में आयु टूटने की, टूट सकने की बात सत्य है;सोपक्रमी आयुष्य टूट सकता है। वह कब टूटता है, इसकी एक सीमा है कि जितना सोपक्रमी आयु जीव बांध कर लाया है उसका दो तृतीयांश भोग लेने के, व्यतीत हो जाने के बाद ही कभी भी आयु टूट सकता है, उसके पहले नहीं टूटता है / यथा- कोई व्यक्ति 90 वर्ष का सोपक्रमी आयुष्य बांधकर लाया है तो वह 60 वर्ष की उम्र तक नहीं टूटेगा। उसके बाद कभी भी कोई भी निमित्त मिले तो टूट सकता है और निमित्त नहीं मिले तो वह सोपक्रमी आयुष्य भी पूरा 90 वर्ष तक चल जाता है / यहाँ सूत्र में सोपक्रमी आयुष्य के टूटने के 7 कारण दर्शाये हैं(१) परिणामों से- भय से या तीव्र रागद्वेष के परिणामोंसे। तीव्रहर्ष-शोक के परिणामों से / (2) शस्त्र आदि के निमित्त से, आत्मघात करने के प्रयत्न से / (3) आहार से- अतिआहार से या आहार त्याग से / (4) रोग की तीव्र वेदना से। (5) गिरने पडने या टक्कर लगने से। (6) सर्प काटने से या अन्य हिंसक पशु के भक्षण आदि से। (7) श्वास निरोध करने से / अन्य भी अनेक प्रकार हो सकते है उनका इन 7 में समावेश समझ लेना चाहिये। निरुपक्रमी आयुष्य बांधकर लाने वाले का आयुष्य ऐसे किसी भी निमित्तों से नहीं टूटता है। कभी काकताली न्याय लग सकता है यथा गजसुकुमाल मुनि / यहाँ विशेष यह ज्ञातव्य है कि चरम शरीरी जीव, चक्रवर्ती, तीर्थंकर आदि 63 श्लाघा पुरुष, युगलिक मनुष्य, देवता, | 151]