________________ - आगम निबंधमाला मिलाकर 6 तिथि घटना आगम से सुमेल हो जाता है। अर्थात् लौकिक पंचांग अनुसार भी आगमोक्त 354 दिन का चंद्र संवत्सर हो जाता है। सूर्य संवत्सर की अपेक्षा पंचांग में तारीख लिखी जाती है। उसमें भी वर्ष में 6 दिन ऋतु संवत्सर की अपेक्षा अधिक होते हैं। जनवरी से दिसम्बर तक 366 दिन हो जाते हैं। इस तरह आगमोक्त 6 तिथि बढने का भी सुमेल हो जाता है। . प्रस्तुत सूत्र में किस महीने के किस पक्ष में तिथि घटती-बढती है उनका भी खुलाशा किया गया है, यथा- भाद्रपद, कार्तिक, पौष, फाल्गुन, वैशाख और आषाढ महीनों के कृष्ण पक्ष में चंद्र संवत्सर में तिथि घटती है और सूर्य संवत्सर में इन्हीं महीनों के शुक्ल पक्ष में तिथि बढती है। यहाँ पर तिथि का नाम स्पष्ट नहीं किया गया है। तिथि बनाने संबंधी सूक्ष्म गणित विवरण जैनागमों में उपलब्ध नहीं रहा है। जो भी ज्योतिष संबंधी वर्णन उपलब्ध है वह प्रकीर्ण रूप से है परिपूर्ण विस्तृत सूक्ष्म-आंतरसूक्ष्म गणित फलावट विच्छिन्न है तथा लौकिक पंचांग के प्रायः विधान आगम के संकेत विधानों के पूरक ही है, विरोधी नहीं है। आज से 1200-1300 वर्ष पूर्व भी यही स्थिति थी; अनेक आचार्योंने विचारणा करके पर्व-तिथियों के निर्णय में लौकिक पंचांगको स्वीकार्य, मान्य किया था। जिसकी आधारित गाथा इस प्रकार है- विसमे समय विसेसे, करण गह चार वार रिक्खाणं। पव्व तिहीण य सम्मं, पसाहगं विगलियं सुत्तं // 1 // तो पव्वाइ विरोहं नाऊण, सव्वेहिं गीय सूरिहिं। आगम मूलमिणं पि य, तो लोइंय टिप्पणयं पगयं // 2 // प्रस्तुत गाथाओं का हार्द यह है कि समय की विषमता के कारण पर्व तिथियों का सम्यक् निर्णायक आगमश्रुत विच्छिन्न(कम) हो गया अर्थात् अपूर्ण रह गया है। जिससे आगमाधार से पर्वादि के संयोजन में बराबर सुमेल नहीं हो पाता। अत: लौकिक पंचांग भी आगम के मौलिक सिद्धांतो के पूरक ही है ऐसा मान कर अनेक गीतार्थ, बहुश्रुत आचार्यों ने मिलकर लौकिक पंचांग को ही अपने पर्व तिथियों वगैरह के निर्णय के लिये स्वीकार्य किया है। इसीलिये आज भी लौकिक पंचांग अनुसार ही तिथियों का स्वीकार किया जाता है। मात्र गजरात प्रांतीय | 150