________________ आगम निबंधमाला उसका संरक्षण आदि करके उस साध्वी को अपने पास रखकर सारसंभाल कर सकते हैं / इस प्रकार साधु-साध्वी दोनों ही प्रसंग आने पर पूर्ण हिम्मत के साथ एक दूसरे के पूरक-सहयोगी बन सकते हैं / आगे सूत्र-६१ में कहा गया है कि- (1) कोई पशु-पक्षी साध्वी पर आक्रमण कर रहा हो तो साधु उस साध्वी को पकडकर या सहारा देकर बचा सकता है / (2) ऊँचे-नीचे विषम स्थान से साध्वी फिसल जाय या गिर पडे वैसे समय में साधु उसे सहारा देकर या पकडकर संभाल सकता है। (3) कीचड में या पानी में गिरती-पडती साध्वी को (4) नावा में चढती-उतरती साध्वी को साधु सहारा दे सकता है, पकडकर संभाल सकता है / इन आपवादिक विधानों से स्पष्ट है कि जैन संयम साधना के नियम-उपनियम दृढता वाले एवं अनुशासनबद्ध होते हुए भी परिस्थिति आने पर विवेक से परिपूर्ण भी है / अव्यवहारिक से लगने वाले नियमों से भी समय पर परिपूर्ण व्यवहारिकता जुडी हुई है / साधु-साध्वी का जीवन परस्पर निकटता की अत्यधिक परहेजी वाला है, वह भी ब्रह्मचर्य की वाड रूप हितावह है। फिर भी समय प्रसंग आने पर एक दूसरे के प्रति पूर्ण आत्मीयता से भरा हुआ है। यथा- नदी में, जल प्रवाह में उतर कर बहती साध्वी को पकडकर नीकालना, कांटे की तीव्र वेदना के समय परस्पर एक दूसरे के पाँव में से कुशलता पूर्वक कांटा निकाल देना। पागलता से या प्रेतात्मा से पराभूत साध्वी को अग्लानभावसे पूर्ण संरक्षण देना, नियंत्रण में रखना आदि व्यवहार परम पवित्रता युक्त विवेक के द्योतक हैं। निबंध-७४ संयम में उपकारी दस(गुरु शिष्य सिवाय) .. यहाँ सूत्र-२४ में पाँच की संख्या में विस्तार की अपेक्षा संयम में१० का उपकार,निश्रा,सहायकता स्वीकार की गई है- (1) पृथ्वी-खडे रहे बैठने-चलने(गौचरी-विहार आदि) में उपयोगी होती है / (2) पानो- वस्त्र धोना,तृषा शांत करना,शरीर की शुद्धि वगैरह, इनमें जल की उपयोगिता है / (3) अग्नि- खाद्यपदार्थ अग्नि पक्व ही अधिकतम | 147