________________ आगम निबंधमाला हैं और जिन्हें पराया समझे उनके छोटे-छोटे दोष को भी अति शिखर पर चढाने का, निंदा घृणा का और हीन भावना का वातावरण बनाने का मानस रखकर व्यवहार करते हो; ऐसे श्रावकों को यहाँ शास्त्र में शोक्यवृत्ति वाले या सौत समान श्रावक की कोटी में कहा गया है। इस प्रकार यहाँ श्रावकों को मात्र माता-पिता के समान ही नहीं कहा गया है या मात्र माता-पिता का ठस्सा जमाने वाला ही नहीं कहा है, अपितु जैसा व्यवहार विवेक करने वाले हों उसके अनुसार चार दर्जे के श्रावक इस संसार में पाये जा सकते हैं, ऐसा बताया गया है। .. पस्तुत सूत्र का सही आशय समजकर श्रावक को अपने आप को कैसा बनना, यह सब कुछ शास्त्रकार की अनेकांतिकता को समझकर, खुद की योग्यता और दर्जा हाँसिल कर, हो सके जितना स्व-पर की भलाई की साधना करनी चाहिये / बुरा किसी का भी नहीं करना, तिरस्कार-निंदा-घृणा का व्यवहार शास्त्र के नाम से किसी भी पामर प्राणी के साथ भी नहीं करना चाहिये / तब जिनवाणी के रसिक भूल पात्र साधकों के साथ वैसा व्यवहार कदापि न करते हुए, पूर्वोक्त कवि की कविता जो आगम के मर्म से भरी हुई है, उसी को स्मृति में रखना चाहिये कि- 'मार्ग भुलेला जीवन पथिकने मार्ग चींधवा उभो रहुँ / करे उपेक्षा ए मारगनी तो ये समता चित्त धरूँ // आगम के इस पाठ का सार भी यही है। यहाँ पर श्रमणोपासक के दूसरे 4 प्रकार भी कहे है / सूत्र 45 में कहे गये श्रावक के पूर्वोक्त चार प्रकारों में बाह्य व्यवहारों की प्रधानता है और सूत्र-४६ में आगे कहे जाने वाले 4 प्रकार, व्यक्ति की अपनी आंतरिक योग्यता की अपेक्षा कहे गये हैं। वे इस प्रकार हैं- (1) काच(आयना)समान श्रावक- साधु-साध्वी द्वारा निरुपित उत्सर्ग या अपवाद परिस्थिति के आचार को, गहन तत्त्वों को, प्रवचन के यथार्थ भावों को समझने वाला श्रावक काच के समान कहा गया है / काच में जैसी वस्तु है वैसी ही दिखती है / उसी तरह वह श्रावक जैसा जिस तत्त्व का, गुरु का या आगम का आशय है उसे वैसा ही यथार्थ समझता है / (2) ध्वजापताका समान श्रावक- जिस दिशा की हवा हो, | 138 - -