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________________ आगम निबंधमाला उपेक्षा या आत्मसरक्षा करनी चाहिये। किंतु घणा, निंदा, तिरस्कार,संघ बहिस्कृति, हीन भावना, किसी के भी जीवन के साथ खिलवाड आदि प्रवृत्तिं किसी भी धर्मिष्ट को करना योग्य नहीं कहा जा सकता। ऐसी प्रवृत्तियाँ जो भी साधक करते हैं वह उनकी खुद की मानसंज्ञा,संकीर्णता, स्वार्थपरायणता एवं स्व-जमावट, पर-गिरावट आदि हीन भावनाओं का परिणाम हैं / गिरते हुए को उठाना कर्तव्य है किंतु नहीं उठे तो ठोकरें मारना, यह कोई भी धर्मी का तोक्या,सज्जन का भी कर्तव्य नहीं है। यहाँ अनेक प्रकार के लक्षणों वाले श्रावकों को ध्यान में रखते हुए शास्त्रकार ने चार प्रकार के स्वभाव, व्यवहार करने वाले श्रावक बतलाये हैं (1) माता-पिता जैसी हार्दिक लगन युक्त आत्मीयता का व्यवहार करने वाले, सदा विकास में सहयोगी बनने वाले श्रावक। जिस प्रकार योग्य शिक्षित माता-पिता बच्चे को गलती करने पर थोडी उपेक्षा. थोडी शिक्षा, थोडा समझाना, थोडा संरक्षण करके प्रेम से उसे अवगुणों से बचाने का और गुणों में प्रगति कराने का प्रयत्न करते हैं। वैसेही कोई श्रमण साधक गुरु सांनिध्य के अभाव में या सही संस्कारों के अभाव से कहीं भी मार्गच्युत हो तो श्रावक अपनी शक्ति संजोकर, अपने समभावों की दृढ़ता का ख्याल रखकर,गुरुभक्तिको सुरक्षित रखते हुए, विनय-विवेक और गुरु सम्मान निभाते हुए विचक्षणता से श्रमण को सन्मार्ग की प्रेरणा करे, सन्मार्ग में जोडे,तो वैसी योग्यता वाले, विवेक वाले श्रमणोपासक इस शास्त्रकथन के अनुसार माता-पिता के समान कहे जाने के योग्य होते हैं / (2-3) उसी प्रकार भाई-भाई जैसे एक दूसरे के हितैषी सहयोगी होते हैं; मित्र-मित्र भी एक दूसरे के सहयोगी होते हैं, वैसा भ्रातृत्व का या मित्रता का सहयोगी व्यवहार करने वाले श्रावकों को यहाँ सूत्र में २.भाई समान और ३.मित्र समान श्रमणोपासक होना कहा है। (4) जिस तरह एक व्यक्ति की अनेक अयोग्य पत्नियाँ परस्पर शोक्य वृत्ति से रहती है उसी प्रकार जो श्रावक राग-द्वेष, मेरा-तेरा वाली वृत्ति रखते हैं, अपने अनुराग वाले साधुओं के बडे-बडे दोष भी पेट में समा लेते हैं, भले वहाँ बार-बार बडे बडे ओपरेशन हो; नित-नये लडाई-झगडे, टंटे फसाद होते हो; फूट-फजीति, भागना, गच्छ छोडना, गुरु वडील की अवहेलना होती हो; उन सब गलत प्रकृतियों, दूषित प्रवृत्तियों को पेट में पचा जाते | 137
SR No.004414
Book TitleAgam Nimbandhmala Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilokchand Jain
PublisherJainagam Navneet Prakashan Samiti
Publication Year2014
Total Pages256
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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