________________ आगम निबंधमाला आत्मा को द्रव्यभाव दोनों प्रकार से विश्रांति मिलती है, मानसिक और शारीरिक दोनों ही सुखसमाधि प्राप्त होती है। इसी दृष्टिकोण से शास्त्र में श्रमणोपासक के जीवन में अपेक्षा से चार विश्रांतिस्थान कहे हैं, जिसमें क्रमश: विश्रांति की अधिकता रही हुई है। जैसे-(१) भारवाहक भार को हाथ या कंधों में परिवर्तित करता है (2) थोडी देर के लिये कहीं रखकर शारीरिक मल-मूत्र की बाधा से निवृत्त होता है (3) बीच में मंदिर या धर्मशाला आदि स्थान में रात्रि निवास या दुपहर की विश्रांति करता है (4) घर पर या गंतव्य स्थान में पहुँचकर भार से मुक्त हो जाता है / उसी प्रकार श्रमणोपासक भी सांसारिक जीवन जीते हुए-(१) संत समागम, धर्मश्रवण तथा अनेक त्याग प्रत्याख्यान रूप कुव्यसन त्याग, रात्रिभोजन त्याग या मर्यादा, नवकारसी, पोरसी एवं दयादान प्रवृत्ति आदि धारण करता है, जीवन को सुसंस्कारित करता है तो यह भारवाहक की प्रथम विश्रांति हाथ, कंधे परिवर्तन जैसी कर्मसंग्रह में विश्रांतिकारक है / (2) कुछ समय निकाल कर सामायिक करमा, दैनिक प्रवृत्तिओं, आवश्यकताओं की सीमा रखकर मर्यादा करना यह भारवाहक की दूसरी विश्रांति भार नीचे रखने के समान है। (3) रात्रिभर या दिवसभर के लिये संवर-पौषधमय प्रवृत्ति युक्त उपाश्रय या पौषधशाला में व्रती जीवन से रहना यह भारवाहक की तीसरी विश्रांति-रात्रि निवास के समान है। (4) जीवन का पिछला समय जानकर संसार के कार्यों से निवृत्तिमय जीवन बनाकर, पौषधशाला में ही भिक्षालाकर जीवन निर्वाह करना या फिर अंतिम समय यावज्जीवन का.संलेखना संथारा ग्रहण करना, यह भारवाहक की चौथी विश्रांति गंतव्य स्थान में पहुँच कर सदा के लिये भार त्याग के समान 18 पापों . के त्यागमय संथारा ग्रहण रूप विश्रांति है। ... यह जानकर श्रमणोपासक को सांसारिक जीवन में भी हलुकर्मी, भारमुक्ति रूप विश्रांति, आत्मसमाधि, आत्मउन्नति के लिये जिनाज्ञा अनुसार व्रत-प्रत्याख्यानों की एवं संवर, सामायिक, पौषध आदि तथा निवृत्तिमय जीवन को स्वीकारने की भावनाओं को एवं संस्कारों को बढाते रहना चाहिये / तो वह संसार भार का भारवाहक होते हुए भी 135