SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 126
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आगम निबंधमाला अंतर्मुहूर्त के परिवर्तन से चारों कषाय पाये जाते हैं। अपेक्षा से कषायों की तरतमता होती है यथा- देवों में लोभ, नारकी में क्रोध, तिर्यंच में माया और मनुष्य में मान कषाय की बहुलता होती है / कषायों की उत्पत्ति का आधार- (1) खुद पर-स्वयं से संबंधित (2) अन्य से संबंधित (3) उभय से संबंधित (4) अनाधार से यों ही कषाय हो सकते हैं / कषायों के होने में कारण- (1) जमीन (2) मकान आदि (3) उपधि, उपकरण, सामग्री (4) शरीर / इन कारणों से स्वार्थ आदि की भावना से कषाय उत्तेजित होते हैं। कषायों का स्वरूप विभाग- तीव्रता,मंदता की अपेक्षा या दीर्घकालीन अल्पकालीन पकड की अपेक्षा तथा आत्मगुणों की क्षति में मंदतातीव्रता की अपेक्षा चारो कषायो के चार विभाग हैं(१) अनंतानुबंधी कषाय- यह कषाय तीव्रतम दर्जे का होता है / इस कषाय की पकड लंबी स्थिति की होती है / इस कषाय परिणति में, उदय भाव में जीव प्रायः प्रथम गुणस्थान में होता है। इस कषाय के उदय में समकित या व्रत-प्रत्याख्यान की प्राप्ति जीव को नहीं होती है / समकित आदि होतो भी इस कषाय के उदय में आने पर व्रत या समकित गुण का विनाश होता है तब जीव अनायास मिथ्यात्व अव्रत को प्राप्त कर लेता है / इस अनंतानुबंधी कषाय में आयुबंध हो तो नरक का बंध पडता है। यह कषाय उत्कृष्ट रहे तो जीवन भर भी रहे जैसा स्वभाव का होता है। भवितव्यता और काल लब्धि का जोर हो तो कभी इस कषाय वाला जीव भी पलटी खाकर उसी भव में मोक्ष जा सकता है तथापि व्यवहार स्वभाव की अपेक्षा यह कषाय छूटना कठिनाई वाला कहा गया है। इस को दृष्टांत से समझाया गया है कि- पत्थर में पडी तिराडदरार का मिटना मुश्किल होता है वैसे ही अनंतानुबंधी क्रोध कषाय से टूटे दिल जुडना मुश्किल होता है / पत्थर के स्तंभ का नम जाना मुश्किल होता है वैसे ही अनंतानुबंधी मान का नम्रता में पलटना मुश्किल होता है। बांस की जड का वांकापन मिटना कठिन होता है वैसे ही अनंतानुबंधी की माया वाले स्वभाव का सरल बनना मुश्किल होता [ 126 -
SR No.004414
Book TitleAgam Nimbandhmala Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilokchand Jain
PublisherJainagam Navneet Prakashan Samiti
Publication Year2014
Total Pages256
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy