________________ आगम निबंधमाला है और वस्त्र में लगे किरमची रंग का निकलना कठिन होता है वैसे ही अनंतानुबंधी लोभ का मानस पलटना मुश्किल होता है / इस प्रकार यह अनंतानुबंधी कषाय आत्मा का अधिकतम अहित करने वाला एवं आत्मउत्थान-कल्याण में अधिकतम बाधक होता है। (2) अप्रत्याख्यानी कषाय- यह कषाय अनंतानुबंधी से कुछ कम तीव्र दर्जे का होता है / इस कषाय में पकड उत्कृष्ट 1 वर्ष की होती है / इस कषाय के उदय में जीव के चार गुणस्थान हो सकते हैं, पाँचवाँ गुणस्थान नहीं होता है / इस कषाय के उदय में जीव व्रत-प्रत्याख्यान नहीं कर सकता और कभी पाँचवाँ गुणस्थान या व्रत-प्रत्याख्यान हो तो भी इस कषाय के उदय में वे छूट जाते हैं / इस कषाय में आयुबंध हो तो तिर्यंच गति की प्राप्ति होती है / यह कषाय उत्कृष्ट रहे तो संवत्सरी तक रह सकता है / कदाचित् इसमें परिवर्तन आवेतो इस कषाय वाला जीव भी आगे बढता हुआ उसी भंव में मुक्त हो सकता है तो भी व्यवहार स्वभाव की अपेक्षा इसक़ा छूटना कुछ मुश्किल जरूर होता है / इसको दृष्ट्रांत से इस प्रकार समझाया है कि- तालाब में कीचड पानी सूखने पर जो तिराड मिट्टी में पडी होती है वह पुनः बारिस आने के पूर्व मिटना मुश्किल होती है। वैसे ही इस कषाय वाले का क्रोध सम्यग्दृष्टि हो तो संवत्सरी आने पर वह उस कषाय का वमन कर देता है। अन्यथा वह कषाय अनंतानुबंधी में परिणत हो जाता है। हड्डी के स्तंभ के समान इस अप्रत्याख्यानी कषायोदय के मान वाला कभी किंचित् नम सकता है अधिक नहीं / भेड के सिंग की वक्रता प्रयत्न विशेष से कदाचित् किंचित् मिट सकती है वैसे इस अप्रत्याख्यानी कषाय की माया वाले में किंचित् सरलता हो सकती है। कीचड से भरे वस्त्र का रंग धोने पर किंचित् साफ हो सकता है उसी प्रकार इस कषाय के उदय वाले का लोभमानस कुछ पलट सकता है। इस प्रकार यह कषाय, अनंतानुबंधी से कम दर्जे का होते हुए भी आत्मा का अहित करने वाला एवं मोक्षमार्ग में आगे बढने में अवरोधक होता है / उच्चारण की अशुद्धता से इसे अप्रत्याख्यानावरण कषाय कह दिया जाता है किंतु समझने पर ध्यान में आ सकता है कि अप्रत्याख्यान का | 127