________________ आगम निबंधमाला प्रसंगसंगत एवं समाधानकारक होता है / पूर्वो का विच्छेद होने से जिनशासन में कुछ अभाव, कमी होने से उसे भाव अंधकार होना समझा जा सकता है / द्रव्य अंधकार होना असंभव है और ऐसा मानना भी असंगत है। देवुज्जोए-देवंधयारे शब्द से पूरे देवलोक में प्रकाश या द्रव्य अंधकार अर्थ किया जाय तो यहीं पर क्रमश: देवुक्कलिया, देवकहकह वगेरे शब्दों से परे देवलोक में देवों की किलकारियाँ, देवों की चिक-चिक, देवों का आवागमन आदि मानना पड़ेगा परंतु ऐसा नहीं समझ करके जहाँ जहाँ जितने क्षेत्र में देवों का आवागमन होता है वहीं देवों की किलकारियाँ, चिक-चिक और संन्निपात आदि समझा जाता है। ठीक उसी तरह उद्योत, देवुद्योत भी उसी क्षेत्र में समझना चाहिये, परे देवलोक में नहीं समझना चाहिये / इसलिये लोकुद्योत भी लोक में जहाँ प्रसंग है, जिधर से देवों का आवागमन है, वहीं तक समझना चाहिये / इस प्रकार यहाँ के सूत्रों का अर्थ होता है कि- (1) तीर्थंकरों के जन्म समय (२)दीक्षा समय (३)और केवलज्ञान के समय लोक में प्रासंगिक क्षेत्र में उद्योत होता है / इन तीन प्रसंगों में देवों के आवागमन प्रसंग से देव संबंधी उद्योत, खुशियाँ, किलकारियाँ, चिकचिक-घोंघाट होता है। इसी प्रकार (1) तीर्थंकर के निर्वाण होने से (2) तीर्थंकर धर्म का विच्छेद होने से (3) पूर्वज्ञानरूप श्रुतज्ञान के विच्छेद होने से; लोक में अर्थात् प्रासंगिक क्षेत्र में(क्यों कि महाविदेह क्षेत्र में धर्म और पूर्वज्ञान सदा रहता है।) भाव अंधकार-धर्म की हानि रूप अंधकार होता है, जिसका आभास धर्मी-धर्मनिष्ठमानव और देवोंको होता है। इसीलिये यह भावांधकार भी एक देश = लोक के एक भाग में होते हुए भी इसे शास्त्र में शब्द प्रयोग दृष्टि से लोगंधयारे कहा गया है किंतु उसके साथ सव्व लोगंधयारे नहीं कहा गया है / अत: महाविदेह क्षेत्र में ये भावांधकार नहीं होने पर भी यहाँ कथित लोगंधयारे से कोई विरोध नहीं समझा जाता है। इसी सूत्र के चौथे स्थान में तीर्थंकर के निर्वाण प्रसंग पर भी / 110