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________________ आगम निबंधमाला आकाश में रहकर विकर्वणा करे, वैक्रिय शक्ति प्रयोग से पुद्गल ग्रहण करे, छोडे तो उसमें कोई पुद्गल वैक्रिय शरीर योग्य उद्योत गुण वाले हों तो वे आकाश में इधर-उधर चलायमान होते दिखते हैं अर्थात् पदार्थों की चमक दिखती है। जैसे कि फटाकों के कोई पुद्गल उपर जाकर चमकते हुए दिखकर वहीं समाप्त हो जाते हैं वैसे ही ये चमकने वाले पुद्गल थोडी देर में वहीं समाप्त-विशीर्ण होकर दिखने बंध हो जाता है / (2) देव आकाश में परिचार-संचरण करते हैं तब कुछ देर तक तारा जैसे चमकते पुद्गल और चलते पुद्गल दिखते हैं थोडी देर बाद वे देव अपने से दूर हो जाय या उनके बाधक कोई विमान आदि आ जाय या वे विमान के अंदर चले जाय, तब अपने को दिखना बंद हो जाता है। अत्यंत दूर ऊँचे सैकडों माइल आदि होने से चमकीले पदार्थ कितने भी बडे हों वे तारा जैसे छोटे दिखने लग जाते हैं / (3) चंद्र, सूर्य, ग्रह और नक्षत्र के . विमान सदा अपने स्थान(अवग्रह) में रहते हुए गोलाकार में मेरु पर्वत के प्रदक्षिणा लगाते हुए और मेरु से समान दूरी पर रहते हुए भ्रमण करते रहते हैं / वे चारों तरह के विमान कभी भी आजु-बाजू या ऊपर-नीचे नहीं सरकते हैं / किंतु तारा विमान कभी आडे-टेढे भी चल सकते हैं और थोडी दूर जाकर फिर अपनी पूर्ववत् परिक्रमा चालू कर देते हैं। जिससे भी लोक में हमें तारा टूटता है, ऐसा आभास होता है; जिसे शास्त्रकार की भाषा में तारा रूप चलना कहा गया है / निबंध-५३ लोक में उद्योत व अंधकार का तात्पर्य लोक में कहीं भी होने वाली प्रक्रिया को लोक में होना कहा जाता है। उसे आखा लोक समझ लेना एक बहुत बड़ी भूल है, जो भ्रम से चली आ रही है। शास्त्र में अनेक बातें लोक शब्द से कही हुई है, उन्हें आखालोक नहीं समझा जाता / यथा- लोक में दस अच्छेरे कहे हैं तो गर्भहरण, असंयति पूजा, चंद्र-सूर्यावतरण वगेरे पूरे लोक में नहीं समझना / लोक में किसी एक भाग में होने वाली घटना को लोक की घटना कही गई है। जब कि असंयति पूजा भरत क्षेत्र में ही हुई, उसे पूरे लोक में मानने की कोशीश नहीं की जा सकती / तात्पर्य यह है कि [ 108
SR No.004414
Book TitleAgam Nimbandhmala Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilokchand Jain
PublisherJainagam Navneet Prakashan Samiti
Publication Year2014
Total Pages256
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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