________________ आगम निबंधमाला समझ कर उसके प्रति आसक्ति का त्याग नहीं करता है तब तक उसकी आत्मा में धर्म की उपलब्धि नहीं होती है / अर्थात् आरंभ-परिग्रह में रचे-पचे आसक्त जीव धर्माभिमुख नहीं बन सकते / कभी कोई व्यक्ति देखादेखी या प्रवाह मात्र से धर्मी बन भी जाय तो भी जबतक वह आरंभ परिग्रह को समझकर उसकी आसक्ति से नहीं हट जाता है तबतक वह वास्तव में धर्म पाया हुआ नहीं कहलाता है / जो आरंभ-परिग्रह को समझकर भावों से उसकी आसक्ति कम कर देते हैं वे ही वास्तव में धर्मबोध पा सकते हैं या उन्होंने धर्मबोध प्राप्त किया है, ऐसा समझा जा सकता है। इस प्रकार आरंभ परिग्रह की आसक्ति हटाकर धर्मबोध पाने वाले, क्रमश: अणगार धर्म स्वीकार कर सकते हैं / ब्रह्मचर्यवास संवरसंयम यावत् केवलज्ञान पर्यंत पाँचों ज्ञान में से कोई भी ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं / यह इस प्रकार का धर्म जीव को किसी के पास सुनने से भी प्राप्त होता है और बिना सुने स्वत: आत्मबोध भी हो सकता है / जो पूर्वभव के ज्ञान प्रभाव से या क्षयोपशम से होता है। धर्म का सच्चा स्वरूप :- धर्म दो प्रकार का कहा है- श्रुत धर्म और चारित्र धर्म तथा यह भी बताया गया है कि ज्ञान और चारित्र, इन दो से संपन्न जीव-अणगार अनादि अनंत इस संसार को पार करके मुक्त हो सकते हैं / यहाँ ज्ञान से सम्यग्ज्ञान और उसकी सम्यग् श्रद्धान समझ लेना चाहिये तथा सम्यक्चारित्र के साथ सम्यक् तप समझ लेना चाहिये। क्यों कि उत्तराध्ययन सूत्र में ज्ञान, दर्शन,चारित्र तथा तप रूप चतुर्विध मोक्षमार्ग कहा है / कोई मात्र ज्ञान से ही मुक्ति माने, त्याग-प्रत्याख्यान एवं विरति आदि की उपेक्षा करे तो वह मुक्ति मार्गनहीं हो सकता / एकांत आग्रह होने से वह भी संसार भ्रमण का मार्ग ही बनता है। . चारित्रधर्म के भी दो भेद किये हैं- आगारचारित्र धर्म और अणगारचारित्र धर्म अर्थात् श्रावक धर्म और श्रमणधर्म / साधकों को अपनी अल्प क्षमता होने पर या अवसर-संयोग अनुसार श्रावकधर्म स्वीकार करना चाहिये, उसमें भी एक-एक व्रत से बढ़ते हुए उत्कृष्ट बारह व्रतधारी श्रावक बनना चाहिये / आगे बढ़ते हुए पडिमाधारी [105/