________________ आगम निबंधमाला या रुचि बढ़ती है, यथा- तेतलीपुत्र प्रधान / किन्तु सुख की घड़ियों में ही धर्म धारण कर लिया जाय तो जीव को दुःख की अवस्था देखनी न पड़े। धर्म के परिणामों की तीव्रता(तल्लीनता) में दुःख भी सुख बन जाता है। (15) अभिभावकों के हित सलाह की कभी उपेक्षा नहीं करनी चाहिये / अनुभवी आत्मीयता युक्त व्यक्ति के आदेश का आदर करना चाहिये / नंदीफल सरीखे वर्तमान सुख सुविधा में ही लुभान्वित न होकर भविष्य का या परिणाम का विचार करके ही कोई प्रवृत्ति करनी चाहिये / (16) यदि किसी का भला न कर सको तो बुरा भी मत करो। मुनि को अभक्ति से अमनोज्ञ दान मत दो। यथा- नागश्री / बड़ों के साथ मश्करी कुतूहल करना अपने जीवन को बरबाद करना है, यथापाँड़व / अतः सर्वत्र विवेकबुद्धि और भविष्य की विचारणा पूर्वक दीर्घ दृष्टि से आचरण करो अन्यथा संकट के पहाड़ खड़े हो जाते हैं। जैसे- द्रौपदी का नारद के साथ अविवेक / जीव दया और अनुकंपा का महत्त्व खुद के सुख सुविधा से ज्यादा समझो / दया धर्म का मूल है, कीड़ियों की करुणा में धर्मरुचि अणगार ने स्वयं का जीवन होम दिया / (17) इन्द्रिय विषयों के लुभावने चक्कर में फँसना स्वयं की स्वतंत्रता नष्ट करना है, परतंत्र बनना है / यथा-रत्नद्वीप के अश्व / (18) आहार की आसक्ति किंचित् भी नहीं होना अपितु आहार करते हुए भी उन पुद्गलों के प्रति पूर्ण अनासक्ति भाव होना चाहिये / धन्य सार्थवाह द्वारा अपनी मृत पुत्री के कलेवर के खाने की उपमा से भावित अंतःकरण आहार करने के समय रखना चाहिये / (19) साधना युक्त जीवन में पूर्ण धैर्य रखना चाहिये / संयम रुचि को पूर्ण सुरक्षित रखना चाहिये। संयम च्यत और भोगासक्त व्यक्ति नहीं चाहते हुए भी दुःख परंपरा बढ़ा लेता है / यथा- कंडरीक। इसलिए सावधानी पूर्वक सदा संयम गुणों की वृद्धि करते रहना चाहिये / इस प्रकार इन अध्ययनों में आत्म विकास एवं आत्म सुरक्षा के उपाय विभिन्न तरह से सूचित किए गये हैं / यहाँ अध्ययनों के संक्षिप्त शिक्षा वचन सूचित किये गये हैं जिसके कारण कुछ जिज्ञाशा प्रश्न खडे होना स्वाभाविक है / उसके लिये शास्त्र के उस 98