________________ __ आगम निबंधमाला उत्साह रखना चाहिये, यथा- धन्ना सार्थवाह की चौथी बहु-रोहिणी। (8) साधनामय जीवन में माया कपट का अल्पतम आचरण भी नहीं होना चाहिये / क्यों कि माया मिथ्यात्व की जननी है और समकित को नष्ट करके स्त्रीत्व को प्राप्त कराने वाली है। यथा- मल्ली भगवती का पूर्व भव का कपट / (9) स्त्रियों के लुभावने हावभाव में फँसना खतरे की निशानी है / अपनी प्रतिज्ञा एवं लक्ष्य से च्युत नहीं होना चाहिये / जिनपाल के समान दृढ़ रहना चाहिये। (10) जीव अपने प्रयत्न विशेष से गुणों में शिखर पर भी पहुँच सकता है और अविवेक से अंधकारमय गर्त में भी / जीव की उत्थान और पतन दोनो अवस्थाएँ संभव है / यह जानकर सावधानीपूर्वक विकासोन्मुख बनना चाहिये / चंद्रमा की कला वृद्धि के समान / (11) अपने या पराए किसी भी व्यक्ति के द्वारा कोई भी प्रतिकूल व्यवहार हो सब कुछ शांति एवं गंभीरता के द्वारा सम्यक सहन करना चाहिये, चौथे दावदव वृक्ष के समान / इसमें यदि किंचित भी कमी की जायेगी तो खुद के संयम की ही विराधना होगी / अन्य तीन प्रकार के दावदव वृक्षों के समान / (12) पुद्गल स्वभाव बदलते रहते हैं मनोज्ञ या अमनोज्ञ पुद्गलों में प्रसन्नता-अप्रसन्नता का या घृणा-आनंद मानने के परिणामों का त्याग करने से ही व्यक्ति सच्चा ज्ञानी समभावी बनता है / यथासुबुद्धि प्रधान / (13) धर्मगुरुओं का सत्संग प्राप्त होना आत्मविकास का श्रेष्ठ माध्यम है / अतः समय-समय पर सत्संग लाभ का प्रयत्न रखना चाहिये / सत्संग एवं सुसंस्कारों को पुष्ट करने वाले संयोगों को जुटाते रहना चाहिये / तभी आत्मा धर्म में स्थिर रह सकती है। मनुष्य भव में आत्मसाधना को बिगाड़ने वाला भी कभी पशुयोनि में संयोग पाकर साधना जीवन को सफल कर सकता है, यथा- नंद मणियार (चंडकौशिक आदि) / मनुष्यभव में ही सावधानी युक्त साधना करने का प्रयत्न रखना चाहिये ताकि पशु योनि में जाना ही न पड़े। (14) दुःख आने पर ही अधिकांशतः जीवों को धर्म का बोध लगता है / 97