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________________ आगम निबंधमाला संयम में अस्थिर बनी हुई आत्मा को बड़े ही विवेक से स्थिर करना चाहिये / यथा- भगवान महावीर ने मेघमुनि को। . (2) किसी के वचन या आचरण का मौलिक आशय, उससे समझे बिना भ्रम या कल्पना से भद्रा सेठानी की तरह अपना माथा भारी नहीं करना चाहिये, अन्यथा रूप में(खोटे रूप में)ग्रहण नहीं करना चाहिये। “धर्म साधना का साधन एवं प्रगति मार्ग का साथी होने से शरीर को आहार देना पड़ता है," ऐसी मनोवृत्ति से मुनि को आहार करना चाहिये। यथा- सेठ का चोर को आहार देना। (3) जीवन में अपने साध्य के प्रति दृढ़ आस्था होनी चाहिये, यथाजिनदत्त पुत्र की अंड़े के प्रति ।उसने श्रद्धा, धैर्य रखा कि अंडा यथासमय परिपक्व होगा और दूसरे मित्र ने श्रद्धा की कमी से उसे हिलाया, हटाया, ऊँचा-नीचा किया। श्रद्धा वाले को सुफल मिला, . शंका वाले को कुछ नहीं मिला। .. (4) गंभीरता के साथ इन्द्रिय और मन का निग्रह कर उन्हें आत्मवश में (नियंत्रण में) रखते हुए साधना में अग्रसर होना चाहिये / चंचल और कुतुहल पूर्ण मनोवृत्तियाँ नहीं होनी चाहिये / गंभीर कछुए के समान स्थिर मानस होना चाहिये / (5) मार्ग भटके हुए साधक का तिरस्कार न करके कुशलता और आत्मीयता पूर्वक विनय भक्ति से उसका उद्धार करने का प्रयत्न करना चाहिये, यथा- पंथक मुनि / औषध प्रयोग में अत्यधिक सावधानी वर्तनी चाहिए क्यों कि उसमें कई प्रकार के अपथ्यकारी पदार्थ प्रयुक्त होते हैं / जिसकी मात्रा का अविवेक हो जाने पर वे पदार्थ बुद्धि भ्रष्ट एवं धर्म च्युत कर देते हैं, यथा- शैलक राजर्षि / (6) कर्म आत्मा को लेप युक्त तुम्बे के समान भारी बना कर संसार में डुबाते हैं, ये कर्म पापों से पुष्ट होते हैं, और पाप हिंसा आदि, क्रोध आदि, कलह निंदा आदि 18 हैं / इनके त्याग से आत्मा हलुकर्मी बनते हुए क्रमशः मुक्त बन सकती है / अतः पापों का त्याग और कर्मों की निर्जरा करने में सदा पुरुषार्थ रत रहना चाहिए / .. (7) संयम में और आत्मगुणों में दिनों दिन विकास करते रहना चाहिय किन्तु उपेक्षा या लापरवाही नहीं होनी चाहिये / उत्तरोत्तर बढ़ने का / 96/
SR No.004413
Book TitleAgam Nimbandhmala Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilokchand Jain
PublisherJainagam Navneet Prakashan Samiti
Publication Year2014
Total Pages256
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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