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________________ आगम निबंधमाला कल्पना की जा सकती है कि इस प्रकार का आहार करते समय धन्य के मन में किस सीमा का अनासक्त भाव रहा होगा। निश्चय ही लेशमात्र भी आसक्ति का संस्पर्श उसके मन को नहीं छूआ होगा, अनुराग निकट भी नहीं फटका होगा / धन्य ने उस आहार में तनिक भी आनंद न माना होगा। राजगृह नगर और अपने घर पहुँचने के लिये प्राण टिकाए रखना ही उसका एकमात्र लक्ष्य रहा होगा / साधु को इसी प्रकार का अनासक्त भाव रखकर आहार करना चाहिये / अनासक्ति को समझाने के लिये इससे अच्छा तो दूर रहा, इसके समकक्ष भी अन्य उदाहरण मिलना संभव नहीं है / यह सर्वोत्कृष्ट उदाहरण है / इसी दृष्टिकोण को समक्ष रख कर इस उदाहरण की अर्थघटना करनी चाहिये / निबंध-२८ पुंडरोक-कंडरीक के अध्ययन से प्राप्त शिक्षा (1) संयम जीवन में कभी रुग्णावस्था के कारण औषध-भेषज का सेवन करना हो या अन्यतर शक्तिवर्धक पौष्टिक दवा लेना आवश्यक हो जाय तो उसमें अनुभव एवं विवेक की अत्यधिक आवश्यकता होती है। क्यों कि शक्तिवर्धक दवाएँ या रासायनिक दवाएँ कभी-कभी किसी व्यक्ति के मानस पर ऐसा प्रभाव जमा देती है कि जिससे ऐसो आराम या भोगाकांक्षा की मनोवृत्ति प्रबल हो जाती है जो सामान्य या विशेष अनेक उपायों से भी अंकुश में नहीं हो सकती / यथा- शैलक राजर्षि एवं कंडरीक मुनि / दोनों ही दृष्टांत इस सूत्र में दिए गये हैं। दोनों मुनियों के पथ भ्रष्ट हो जाने का निमित्त कारण औषध-भेषज चिकित्सा ही बनी थी। ... . अतः मुनि जीवन में प्रवहमान साधकों को रसायनिक दवाएँ स्वयं लेने में या किसी अन्य साधु को देने में परिपूर्ण विवेक रखना चाहिये / प्रायः अनेक साध दवां की मात्रा में या पथ्य परहेज में अविवेक कर जाते हैं / जिसका परिणाम नूतन रोगोत्पत्ति और जीवन विनाश तक में भी आ सकता है / कई साधक औषध-भेषज के निमित्त से संयम में शिथिल मानस वाले हो जाते हैं और कोई संयमच्युत भी हो जाते हैं / / 93
SR No.004413
Book TitleAgam Nimbandhmala Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilokchand Jain
PublisherJainagam Navneet Prakashan Samiti
Publication Year2014
Total Pages256
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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