________________ आगम निबंधमाला ही वह आहार किया, उसके स्वाद में किसी भी प्रकार का आनंद संकल्प नहीं किया / वैसे ही श्रमण निग्रंथों को केवल मुक्ति प्राप्त करने हेतु एवं ग्रहण किये गये संयम की पालना के लिए अपने शरीर की अत्यावश्यक शक्ति को बनाए रखने के लिए ही आहार करना चाहिये / अन्य कोई भी हेतु आहार करने में नहीं होना चाहिये। इसी अपेक्षा को विस्तृत रूप में बताने के लिये आहार करने के छः कारण उत्तराध्ययन सूत्र में और ठाणांग सूत्र आदि में कहे गये हैं / शरीरमाद्यं खलु धर्म साधनम् अर्थात् धर्म साधना का प्रथम या प्रधान साधन शरीर है। शरीर की रक्षा पर ही संयम की रक्षा निर्भर है। मानव शरीर के माध्यम से ही मुक्ति की साधना संभव होती है। अतएव त्यागी वैरागी उच्चकोटी के संतों को भी शरीर टिकाए रखने के लिये आहार करना पड़ता है। तीर्थंकरों ने आहार करने का विधान भी किया है / किन्तु . संतजनों का आहार अपने लक्ष्य की पूर्ति के एक मात्र ध्येय को समक्ष रख कर होना चाहिये / शरीर की पुष्टि, सुंदरता, विषयसेवन की शक्ति, इन्द्रिय-तृप्ति आदि की दृष्टि से नहीं / साधु जीवन में अनासक्ति का बड़ा महत्त्व है / गृहस्थों के घरों से गोचरचर्या द्वारा साधु को आहार. उपलब्ध होता है / वह मनोज्ञ भी हो सकता है, अमनोज्ञ भी हो सकता है, आहार अमनोज्ञ हो तो उस पर अप्रीति भाव, अरुचि या द्वेष का भाव उत्पन्न न हो और मनोज्ञ आहार करते समय प्रीति या आसक्ति उत्पन्न न हो, यह साधु के समभाव की कसौटी है / यह कसौटी बड़ी विकट है / आहार न करना उतना कठिन नहीं है जितना कठिन है मनोहर सुस्वादु आहार करते हुए भी पूर्ण रूप से अनासक्त रहना / विकार का कारण विद्यमान होने पर भी चित्त को विकृत न होने देने के लिये दीर्घकालीन अभ्यास, धैर्य एवं दृढ़ता की आवश्यकता होती है / धन्य सार्थवाह को अपनी बेटी सुंसुमा अतिशय प्रिय थी। उसकी रक्षा के लिये उसने सभी संभव उपाय किए थे। उसके निर्जीव शरीर को देख कर वह संज्ञाशून्य होकर धरती पर गिर पड़ा, रोता रहा। इससे स्पष्ट है कि सुसुमा उसकी प्रिय पुत्री थी। तथापि-प्राणरक्षा का अन्य उपाय न रहने पर उसने उसके निर्जीव शरीर के मांस-शोणित का आहार किया। / 92