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________________ आगम निबंधमाला कुछ नया आगम निष्कर्ष ध्यान में आवे या शंका जिज्ञासा असमंजस जैसा लगे तो संपादक से पत्रव्यवहार करने का ध्यान रखेंगे।] निबंध-२७ सुंसमा के अध्ययन से प्राप्त शिक्षा-ज्ञातव्य धन्य सार्थवाह और उसके पुत्रों ने सुसमा के मांस-रुधिर का आहार शरीर के पोषण के लिये नहीं किया था। जिव्हा-लोलुपता के वशीभूत होकर भी नहीं किया था, किन्तु राजगृही तक पहुँचने के एक मात्र उद्देश्य से ही किया था। इसी प्रकार साधक मुनि को चाहिए कि वह इस अशुचि शरीर के पोषण के लिए नहीं वरन मुक्तिधाम तक पहुँचने के लक्ष्य से ही आहार करे / जिस प्रकार धन्य सार्थवाह को अपनी पुत्री के मांस-रुधिर के सेवन में लेशमात्रं भी आसक्ति या लोलुपता नहीं थी, उसी प्रकार साधक के मन में आहार के प्रति अणमात्र की आसक्ति नहीं होनी चाहिये / उच्चतम कोटी की अनासक्ति प्रदर्शित करने के लिये यह उदाहरण अत्यंत उपयुक्त है / इस पर सही दृष्टिकोण से शास्त्रकार के आशय को समझने का प्रयत्न करना चाहिये / - अपनी साधना को उन्नतोन्नत बनाने के लक्ष्य वाले साधकों को इस दृष्टांत में बताए गए आदर्श के अनुसार आहार के प्रति अपनी उदासीन भावनाओं का सर्जन करना चाहिये / जिसके लिये आहार करते समय एवं अन्य समय में इस दृष्टांत का अनुचिंतन करते रहना चाहिए कि आप्त पुरुषों ने भिक्षु को आहार के लिये ऐसी मनोवृत्ति रखने का उपदेश किया है। अपने परिवारिकजनों का अथवा किसी मानव के मृत कलेवर का आसक्ति पूर्वक आहार करने वाला मनुष्य की कोटी में नहीं गिना जा सकता / उसी प्रकार भिक्षा में प्राप्त आहार को गृहत्यागी निग्रंथ आसक्ति पूर्वक खावे तो उनकी वह वृत्ति साधुत्व को चेलेंज देने वाली होती है अर्थात् वह साधक अपने भाव संयम से हाथ धो बैठता है। संयम की सच्ची आराधना वह नहीं कर सकता है / किसी कवि ने ठीक ही कहा है-दीपक झोलो पवन को, नर ने झोलो नार / साधु ने झोलो जीभ को, डूबे काली धार // जिस प्रकार धन्य सार्थवाह ने केवल नगर में पहुँचने मात्र के लिये / 91 /
SR No.004413
Book TitleAgam Nimbandhmala Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilokchand Jain
PublisherJainagam Navneet Prakashan Samiti
Publication Year2014
Total Pages256
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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