________________ आगम निबंधमाला पी लिया, यह भी समय पर किया गया खुद का विवेक समझना / विवेक का महत्व विनय और आज्ञा से भी बढ़कर समझना, यह भगवदाज्ञा की आराधना में है विराधना में नहीं / (6) साधु को किसी का गुप्त अवगुण नहीं खोलना चाहिए / फिर भी धर्म पर संभावित आक्षेप आपत्ति से बचने हेतु धर्मरुचि अणगार के गुरु को नागश्री का नाम प्रकट करना आवश्यक हो गया / अन्यथा यह बदनामी होती कि साधुओं ने जहर दे दिया / क्यों कि जंगल में पड़े मुनि के मृत शरीर में जहर का परिणमन स्पष्ट दिख रहा था। यह भी धर्मघोष आचार्य का विवेक व्यवहार था कि उन्होंने साधुओं से जगह-जगह घोषणा करवाई कि नागश्री के दिये गये जहरी शाक के खाने से मुनि की मृत्यु हुई / धर्मघोष आचार्य चौदह पूर्व ज्ञान के धारक आगम विहारी थे / (7) परस्त्री सेवन का त्याग धार्मिक जीवन के लिये एवं व्यवहारिक जीवन के लिये भी अत्यंत आवश्यक समझना चाहिये। परस्त्री लंपट पुरुषों का परभव तो बिगडता ही है किन्तु कई व्यक्ति इस भव में भी महान दुःखी और निन्दित हो जाते है, यथा- द्रौपदी पर ललचाने वाला अमरकंका राजा पद्मरथ / शास्त्र में भी कहा है- कामे य पत्थेमाणा अकामा जंति दुग्गइं / अर्थात् इन्हें इच्छित भोग मिल भी नहीं पाते, तो भी विचारों की मलिनता से ही ये दुर्गति के भागी बनते हैं / अतः मर्यादित व्रतधारी जीवन अर्थात् स्वदार संतोष व्रत अवश्य स्वीकार कर लेना चाहिये / (8) कथानक के सभी प्रसंग उपादेय नहीं होते हैं उसमें कई प्रसंग केवल ज्ञातव्य होते हैं एवं कुछ ही उपादेय-धारण करने योग्य होते हैं और कोई त्याग करने योग्य बातें होती है एवं कई आदर्श शिक्षाएँ होती है / अतः ऐसी कथाओं में से विवेकपूर्वक क्षीरनीर बुद्धि से आदर्श ग्रहण करने चाहिये। (9) भाषाप्रयोग का भी परिणाम पर असर पड़ता है, अतः इसमें विवेक रखना चाहिये / यथा- पद्मरथ से युद्ध करने जाते समय पाँड़वों के शब्द उच्चारण और कृष्ण के शब्द उच्चारण / यथा- या तो हम रहेंगे या पद्मरथ(पाँड़व), मैं जीतकर आऊँगा(कृष्ण)। . (10) बड़े पुरुषों से कभी भी हँसी ठट्ठा या कुतुहल वृत्ति का व्यवहार नहीं करना चाहिये / अन्यथा अति प्रेम भी टूटने का कारण बन जाता है, / 89