________________ आगम निबंधमाला होकर दादा-भगवान, श्रीमद्रायचंद्र, कानजीस्वामी आदि पंथ एवं अन्य धर्म के स्वामीनारायण, शुचिधर्म, दानधर्म आदि एकांतिक मार्ग में भटक जाते हैं / सदा-सदा के लिये सम्यग्ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप प्रधान वीतराग मार्ग के आचरण से अलग हटकर भी अपने को परमधर्मी, परम वीतरागी बन जाने के संतोष का दंभ धरते हैं / उनकी दशा इस अध्ययन वर्णित नंद मणियार जैसी हो जाती है। आखिर एक दिन पुनः शुद्ध वीतराग धर्म में आये बिना उन कहान, दादा, श्रीमद् के अनुयायी अर्थात् भगवान महावीर के अननुयायीपन से, व्रत नियम अणुव्रत महाव्रत की उपेक्षा धर्म से उनका कल्याण संभव नहीं रहता है और बेचारे जैनधर्म के नाम से या कल्याण मार्ग के भ्रम से सदा सदा के लिये सच्चे स्याद्वाद रूप मोक्षधर्म से वंचित रह जाते हैं / ऐसे लोग उदय कर्माधीन होने से दया के पात्र है। निबंध-२६ द्रौपदी के अध्ययन से प्राप्त ज्ञेय तत्त्व (1) धर्म और धर्मात्माओं के साथ किया गया अल्पतम खिलवाड़ व्यक्ति को भवोभव दुखदाई हो जाता है / जैसे नागश्री ने मुनि को जहर का दान देकर दुःख ही दुःख प्राप्त किया / (2) पाप छिपाया ना छिपे यह हमेशा दुष्कृत्य करते समय स्मरण में रखना चाहिये / वह कई गुना बढ़कर प्रगट हो जाता है / नागश्री का जहर बहराना गुप्त था फिर भी वह प्रकट हो गया / (3) कर्मों का विपाक महा भयानक होता है / नागश्री उसी भव में भिखारण बनी, अंत में सौलह रोगों की व्यथा भुगती और नरक में गई / (4) मुनि जीवन की साधनाएँ जिनशासन में विविध प्रकार की होती है। गच्छ और गुरु के साथ में रहते हुए भी मुनि बहुत बड़ी तपस्या के पारणा लाने में ए वं परठने में स्वतंत्र और स्वावलंबी रह सकता है / यथा- धर्मरुचि अणगार के गुरु उन्हें मासखमण की तपस्या में भी पारणा लाने एवं जहर का आहार परठने जाने की अनुमति दे देते हैं, दूसरे साधु को भेजने का प्रस्ताव भी नहीं रखते हैं। (5) परठने की गुरु आज्ञा होते हुए भी धर्मरुचि ने उस जहर को स्वयं | 88