________________ आगम निबंधमाला रहन८चाहिये / 2. आसक्ति अधःपतन का कारण है, अतः सदा विरक्तभाव को जीवन के प्रत्येक क्षण में उपस्थित रखना चाहिये / (2) गृद्धि, आसक्ति, मोह या राग, इसे किसी भी शब्द से कहा जाय, वह आत्मा को मलीन बनाने का एवं आत्मा के अधःपतन का एक प्रधान कारण है। नंद मणियार ने पुष्करिणी बनवाई, यश-कीर्ति सनकर हर्षित होने लगा, अंतिम समय में भी वह नंद मणियार पुष्करिणी में आसक्त रहा। इसी आसक्ति भाव ने उसे ऊपर चडने के बदले नीचे गिरा दिया। वह उसी पुष्करिणी में मेंड़क पर्याय में उत्पन्न हुआ। (3) इस अध्ययन से तिर्यंच भव में भी श्रावक व्रत स्वयं धारण करने एवं आजीवन संथारा भी स्वयं धारण करने का आदर्श उपस्थित किया गया है। (4) श्रावक के व्रतों में पापों का स्थूल त्याग होता है और उसके संथारे में पापों का सर्वथा त्याग होता है। फिर भी संथारे में वह साधु नहीं कहा जाता, किन्तु श्रावक ही कहा जाता है / बाह्य विधि, वेश व्यवस्था एवं भावों में साधु और श्रावक के अंतर होता है / अतः संथारे में पापों का साधु के समान सर्वथा पच्चक्खाण होते हुए भी श्रावक, श्रावक ही कहलाता है, वह साधु नहीं कहा जा सकता / (5) सम्यकत्व के चार श्रद्धान का महत्त्व इस अध्ययन में बताया गया है / वे इस प्रकार हैं- 1. जिन भाषित तत्त्वों के ज्ञान की वृद्धि करना। 2. तत्त्व ज्ञाता साधु या श्रावक की संगति करते रहना / 3. अन्य धर्मियों की संगति का त्याग। 4. सम्यकत्व से भ्रष्ट हो जाने वालो का परिचय वर्जन / इन चारों बोलों से विपरीत संयोग या आचरण होने से नंद मणियार श्रावक धर्म से च्युत हो गया था / इस प्रकार अध्ययन-१२ और 13 इन दोनों में एक श्रेष्ठ श्रावक का और एक पतित श्रावक का वर्णन दृष्टांत रूप से दिया गया है / सुबुद्धि प्रधान श्रावक उसी भव से मोक्षगामी हुआ और नंद मणियार श्रावक आगामी भव में मोक्ष प्राप्त करेगा। आज के जमाने में कई धार्मिक स्थानकवासी परिवार संत समागम के अभाव में अथवा अन्य श्रद्धा भ्रष्ट जैन का नाम धराने वालों के भाषा लालित्य के चक्कर में आकर, अपने शुद्ध वीतराग स्याद्वाद मार्ग से तथा द्रव्य-भाव रूप उभयात्मक आत्मसाधना के सत्य मार्ग से चलायमान | 87