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________________ आगम निबंधमाला .. राजा ने स्वयं प्रयोग करके देखा / सुबुद्धि का कथन सत्य सिद्ध हुआ। तब राजा ने सुबुद्धि से पूछा- सुबुद्धि ! तुम्हारी बात वास्तव में सत्य है पर यह तो बताओ कि यह सत्य तथ्य, यथार्थ तत्त्व तुमने कैसे जाना? तुम्हें किसने बतलाया ? सुबुद्धि ने उत्तर दिया- स्वामिन् ! इस सत्य का परिज्ञान मुझे जिन भगवान के वचनों से हुआ है। वीतराग वाणी से ही मैं इस सत्य तत्त्व को उपलब्ध कर सका हूँ। राजा ने जिनवाणो श्रवण करने की अभिलाषा प्रकट की। सुबुद्धि ने उसे चातुर्याम धर्म का स्वरूप समझाया / राजा भी श्रमणोपासक बन गया / एक बार स्थविर मुनियों का चंपा में पदार्पण हुआ / धर्मोपदेश श्रवण कर सबद्धि अमात्य ने प्रव्रज्या ग्रहण करने की इच्छा से अनुमति मांगी। राजा ने कुछ समय रुक जाने के लिये और फिर साथ ही दीक्षा अंगीकार करने के लिये कहा / सुबुद्धि ने उसके कथन को मान लिया। बारह वर्ष बाद दोनों संयम अंगीकार करके अंत में जन्म, जरा, मरण की व्यथाओं से सदा-सदा के लिये मुक्त हो गये। (1) प्रस्तुत अध्ययन में कहा गया है कि सम्यग्दृष्टि ज्ञानी पुरुष किसी भी वस्तु का केवल बाह्य दृष्टि से विचार नहीं करता, किन्तु आंतरिक दृष्टि से भी अवलोकन करता है। उसकी दृष्टि तत्त्वस्पर्शी होती है। तत्त्वस्पर्शी दृष्टि से वस्तु का निरीक्षण करने के कारण उसकी आत्मा में रागद्वेष के आविर्भाव की संभावना प्रायः नहीं रहती। इससे विपरीत बहिरात्मा मिथ्या दृष्टि जीव वस्तु के बाह्यरूप का ही विचार करता है / वह उसकी गहराई में नहीं उतरता है, इस कारण पदार्थों में इष्ट अनिष्ट, मनोज्ञ अमनोज्ञ आदि विकल्प करता है और अपने ही इन मानसिक विकल्पों द्वारा रागद्वेष के वशीभूत होकर कर्मबंध का भागी होता है / इस उपदेश को यहाँ अत्यंत सरल कथानक की शैली में प्रकट किया गया है। (2) सुबुद्धि प्रधान सम्यग्दृष्टि, तत्त्व का ज्ञाता और श्रावक था, अतः सामान्य जनों की दृष्टि से उसकी दृष्टि भिन्न थी। सम्यग्दृष्टि के योग्य निर्भीकता भी उसमें थी। सम्यग्दृष्टि आत्मा किसी वस्तु के उपभोग से न तो चकित (विस्मित)होता है और न पीड़ा दुःख या.द्वेष का अनुभव करता है। वह यथार्थ वस्तु स्वरूप को जान कर अपने स्वभाव में स्थिर / 84
SR No.004413
Book TitleAgam Nimbandhmala Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilokchand Jain
PublisherJainagam Navneet Prakashan Samiti
Publication Year2014
Total Pages256
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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