________________ आगम निबंधमाला गौण हो जाते हैं / यथा- उपासकदशा सूत्र वर्णित आनंद आदि दसों श्रावकों का अंतिम छः वर्ष का साधनामय जीवन / सार यह है कि अरणक श्रावक के जीवन से धर्म में दृढ़ता, सहवर्तियों को सहयोग एवं परिग्रह की सीमा में सतर्क रहना, मन को लोभान्वित नहीं करना इत्यादि शिक्षाएँ ग्रहण करनी चाहिये / (9) अपनी कला में कोई कितना भी निपुण हो किन्तु उसके प्रवृत्ति में विवेक बुद्धि न हो तो उसे लाभ और यश की जगह दुःख और तिरस्कार की प्राप्ति होती है, यथा-मिथिलानगरी का दक्ष चित्रकार / उसके पास श्रेष्ठ कला थी किन्तु विवेक बुद्धि के अभाव में उसे दंड़ित होना पड़ा / अतः हर ज्ञान-कला के साथ विवेक सीखना भी आवश्यक होता है। .. मुनियों को भी सामुहिक जीवन में विवेक की बहुत आवश्यकता है किस परिस्थिति में कितने विवेक से उत्सर्ग मार्ग पर चलना चाहिए और किस तुफानी परिस्थिति में कितने विवेक के साथ अपवाद मार्ग पर चलना आवश्यक हो जाता है, यह विवेक ज्ञान अवश्य सीखना एवं सीखाना चाहिए / हर परिस्थिति में एकांत उत्सर्ग मार्ग पर ही चलना यह गच्छमुक्त या विशिष्ट साधनास्त साधकों के लिए उचित है किन्तु गच्छंगत सामुहिक जीवन वाले स्थविर कल्पी साधुओं का सामाजिक और व्यवहारिक जीवन होता हैं / उन्हें परिस्थितिक उचित विवेक के साथ ही व्यवहार करना श्रेष्ठ एवं शोभाजनक होता है / जिस प्रकार श्रावक की गृहस्थ जीवन युक्त साधना और निवृत्ति साधना यों दो विभाग है उसी प्रकार मुनि जीवन के भी गच्छगत और गच्छमुक्त या सामान्य साधक और विशिष्ट साधक अथवा स्थविरकल्पी और जिनकल्पी ऐसे साधना के दो विभाग है / एक में व्यवहार और विवेक आवश्यक है तो दूसरे विभाग में व्यवहार और विवेक गौण हो जाता है क्योंकि वे निवृत्त साधक कहे जाते हैं। (10) शुचि मूलक धर्म में पानी के जीवों का आरंभ करके उसे धर्म और मुक्ति मार्ग माना जाता है / यह भ्रामक एवं अशुद्ध सिद्धांत है। इसीलिए ऐसे सिद्धांत को खून से खून की शुद्धि करने की वृत्ति की उपमा दी गई है / अतः प्रत्येक धर्मार्थी मुमुक्षु प्राणी को यह अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि छः काया के जीवों की किसी भी प्रकार से / 81