________________ आगम निबंधमाला लगाकर प्रायश्चित्त लेता है तो उसे कह दिया जाता है कि यह तो "कुम्भार वाला मिच्छामि दुक्कडं" है, इससे कोई लाभ नहीं है / यह भी भेड़ चाल से असत्याक्षेप लगाना मात्र है / क्यों कि कुंभार के दृष्टांत वाला मिच्छामि दुक्कडं और प्रवत्ति तो कुतूहल और मूर्खता भरी है और निरर्थक और निष्प्रयोजन वत्ति है और उसके मिच्छामि दुक्कडं में खेद, पश्चाताप, प्रायश्चित का कोई भाव नहीं होता है, केवल मजाक करना मात्र ही उसका ध्येय होता है, ऐसे जघन्य घणित कत्य करने वाले में और विवेक युक्त प्रायश्चित करके पुनः आवश्यक होने पर उस कत्य का विवेक पूर्वक सेवन कर प्रायश्चित लेने में भी आकाश पाताल का अंतर है इसे एक कर देना भी अबूझ वत्ति है। ..जब अपने शरीर के लिए साधु एक वर्ष में अनेकों बार दोष लगावे, अनेकों बार आपरेशन कराते रहे और बारम्बार प्रायश्चित भी ले, थोडे दिन बाद शारीरिक परिस्थिति से फिर भी कोई दोष लगावे एवं प्रायश्चित्त ले तो भी उन्हें अपने मान्य गच्छ गुरु का होने से कुम्भार वाला मिच्छामि दुक्कडं नहीं कहा जाता या नहीं समझा जाता किन्तु अपने मान्य गच्छ गुरु से भिन्न श्रमण की उससे भी अल्पतम दोष की प्रवत्ति हो तो भी कुम्भार वाला मिच्छामि दुक्कडं कह दिया जाता है यह एक कषायजन्य प्रवति है / हर व्यक्ति की अपनी अपवादिक परिस्थिति अलग-अलग होती है। शरीर के अतिरिक्त अन्य भी तो अनेक आपवादिक परिस्थितियाँ होती ही हैं / उसका गीतार्थ की निश्रा से या स्वयं गीतार्थ के द्वारा निर्णय करके दोष सेवन करना अपवाद मार्ग ही कहलाएगा / परिस्थितिवश एक बार या अनेक बार भी दोष सेवन हो तो उसकी भी शुद्धि होना व्य. उ. 1 में तथा निशीथ उ. 20 में बताया है। फिर भी कोई अपने मन कल्पना से अनेक बार दोष सेवन को एकान्त दृष्टि से केवल "कुम्भार वाला मिच्छामि दुक्कड" कह कर शुद्धि आराधना न हो सके ऐसा कहे तो वह उसकी मूर्खता है एवं आगम निरपेक्ष अबूझ प्ररूपणा है / उसे तो व्यवहार सूत्र उद्दे. 1 सूत्र 1 से 18 तथा निशीथ सूत्र उद्दे. 20 सूत्र 1 से. 18 का एवं संपूर्ण बीसवे उद्देशक को विद्वान वाचना प्रमुख से समझने का / 61