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________________ आगम निबंधमाला करने वाला स्वयं तो शरीर की सेवा करता है किन्तु किसी अन्य की सहायता अंगीकार नहीं करता / भक्तप्रत्याख्यान की अपेक्षा इसमें अधिक साहस और धैर्य की आवश्यकता होती है। किन्तु पादपोपगमन समाधिमरण तो साधक की चरम सीमा की कसौटी है। उसमें शरीर की सार संभाल न स्वयं की जाती है; न दूसरों के द्वारा कराई जाती है। उसे अंगीकार करने वाला साधक समस्त शरीर चेष्टाओं का परित्याग करके पादप(वक्ष) की कटी हुई शाखा के समान निश्चेष्ट, निश्चल हो जाता है / अत्यन्त धैर्यशील, सहनशील और साहसी साधक ही इस समाधिमरण को स्वीकार करते हैं / सार :- आत्मघात कषायों के उद्वेग से होता है या आर्तरौद्रध्यान से होता है जब कि संलेखना संथारा तो परम शांत एवं धर्म ध्यान के परिणामों से होता है / यही दोनों में मुख्य अंतर है। मत्यु समय की पहिचान : अतिगाज नहीं अति बीज नहीं, मूत्र न खंडे धार / / कर तो दीसे स्तंभ सा, हंसा चालन हार // आत्मघात जीव की कषाय अवस्था का परिणाम है / संथारा करना ज्ञान एवं वैराग्य मय आत्मा की सर्वोच्च समभाव एवं समाधिमय अवस्था है / निबंध-१५ - अबूझ कहावतों में संशोधन अपनी झोपड़ी में आग लगाना :- कोई भी श्रमण या श्रमणी समाज हित भावना से या श्रावक समुदाय की आवश्यकता आग्रह से कभी किंचित्संयममें अपवादरूपदोषकासेवनकरताहैतोउतावले नामधारी ज्ञानी कह देते हैं कि “यह तो घर की झोपड़ी में आग लगाकर दूसरों को ताप कर ठंडी उडाने के लिए कहने के समान मूर्खता है" किन्तु इस प्रकार की उक्ति लगाना एक ढर्रे-बाजी है, अविवेक पूर्ण हैं, ज्ञान का अजीर्ण है / ___क्यों कि कहाँ तो संयम में किंचित एक देश रूप दोष लगाकर / 59 /
SR No.004413
Book TitleAgam Nimbandhmala Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilokchand Jain
PublisherJainagam Navneet Prakashan Samiti
Publication Year2014
Total Pages256
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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